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आचार्य कुन्दकुन्द ने 'समयसार' में संवर के विवेचन के अन्तर्गत ध्यान का वर्णन करते हुए लिखा है कि जो साधक सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त होकर अपनी आत्मा का आत्मा से ध्यान करता है, वह कर्म तथा नोकर्म का चिन्तन नहीं करता। ऐसा चिन्तन करने वाला आत्मा के एकत्व का चिन्तन करता है । इस प्रकार, आत्मा का ध्यान करता हुआ दर्शन और ज्ञानमयी होकर, किसी से न जुड़ता हुआ, वह स्वल्पकाल में ही कर्मों से विमुक्त हो जाता है और आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करता है |
'मोक्षपाहुड' में लिखा है कि आत्मा ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र से युक्त है - गुरु के अनुग्रह से यह जानकर साधक को नित्य आत्मस्वरूप का ध्यान करना चाहिए | 31
स्वामी कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार, निर्विकल्प - अवस्था, अर्थात् निज स्वरूप में मन को एकलयता, एकाग्रता, अथवा स्थिरता में स्थित करना ही उत्तमध्यान या शुभध्यान कहलाता है | 32
'तत्र
ध्यान विचार - सविचार ( अनुवादक - नैनमल सुराणा ) में कहा गया हैध्यानं चिन्ता-भावनापूर्वकः स्थिरोऽध्यवसायः ", अर्थात् चिन्ता (चिन्तन) एवं भावना से उत्पन्न स्थिर अध्यवसाय ही ध्यान है। आत्मा के जो 'स्थिर' अध्यवसाय अर्थात् अवस्थित अध्यवसाय होते हैं, वे ही 'ध्यान' कहलाते हैं और जो अध्यवसाय चल अर्थात् अनवस्थित होते हैं, वे चिन्ता अथवा चिन्तन कहलाते हैं । जब चिन्तन को अन्य विषयों से
लोकप्रकाश
30/421-422.
ॐ जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा । णवि कम्मं णोकम्मं चेदा चिंतेदि एयत्तं । । अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमओ अणण्णमओ ।
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लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं । । - अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा 63-64, पृ 312. सुविसुद्ध - राय - दोसो बाहिर - संकल्प - वज्जिओ धीरो । एयग्ग-मणो संतो जं चिंतइ तं पि सुइ - झाणं । । स- सव्व - समुब्भासो णट्ट - ममत्तो जिदिदिओ ।
अप्पा चिंतंतो सुइ - झाण - रओ हवे साहु । ।
वज्जिअ -सयल - वियप्पो अप्प - सरूवे मणं णिरूधंतो ।
जं चिंतदि साणंद तं धम्मं उत्तम झाणं । । स्वामी कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 480-482.
तुलना करें - एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ! एकस्मिमालम्ब ने चिन्तानिरोधः चलं चित्रमेव चिन्ता, तन्निरोधस्तस्यैकमावस्थापनमित्यर्थः। - तत्त्वार्थसूत्र की टीका, श्री सिद्धसेनगणि, सूत्र 9 - 27. 34 भगवती - आराधना, विजयोदयाटीका, ध्यानशतक, प्रस्तावना, पृ 26.
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यशस्तिलकचम्पू आश्वास, श्लोक - 8 / 155-158.
पंचास्तिकाय - 152.
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समयसार, गाथा 188-189, पृ 310.
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