SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'आदिपुराण' में, चित्त को एकाग्र रूप से निरोध करना ध्यान की परिभाषा है। तत्त्वानुशासन में, एकाग्रचिन्तानिरोध को ध्यान कहा है, साथ ही ध्यान को संवर और निर्जरा का कारण माना गया है।22 ___ध्यान की इन सब परिभाषाओं से बिल्कुल भिन्न परिभाषा तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में बताई गई है कि वचन, काय और चित्त का निरोध ही ध्यान है।23 __इससे यह स्पष्ट होता है कि जैन-परम्परा में ध्यान का सम्बन्ध केवल मन से ही नहीं माना गया है, बल्कि वह मन, वाणी और शरीर- तीनों से सम्बन्धित है। इसी आधार पर, ध्यान की सम्पूर्ण परिभाषा देते हुए 'आवश्यकनियुक्ति' में कहा गया हैशारीरिक-वाचिक-मानसिक की एकलयता, एकाग्रप्रवृत्ति तथा उसकी निरंजन-दशा, निष्प्रकम्प-दशा ध्यान है। योगसारप्राभृत में रत्नत्रयमयध्यान किसी एक ही वस्तु में चित्त को स्थिर करने वाले साधु को होता है जो उसके कर्मक्षपण का कारण है। इन सब परिभाषाओं से हटकर युवाचार्य महाप्रज्ञजी ने ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा है कि 'ध्यान चेतना की वह अवस्था है, जो अपने आलम्बन के प्रति एकाग्र होती है। उन्होंने आगे लिखा है- 'चिन्तन-शून्यता ध्यान नहीं और वह चिन्तन भी ध्यान नहीं, जो अनेकाग्र है। एकाग्र चिन्तन ही ध्यान है। भावक्रिया ध्यान है और चेतना के व्यापक प्रकाश में चित्त विलीन हो जाता है, वह ध्यान है। 26 तत्त्वार्थ श्रुतसागरीयवृत्ति", सर्वार्थसिद्धि तथा लोकप्रकाश आदि ग्रन्थों में मन-वचन और काया की स्थिरता को ध्यान कहा गया है। 21 एकाग्रयेण निरोधो यश्चित्तयस्कैत्र वस्तुनि। – आदिपुराण - 21/8. तद्धयान निर्जरा हेतुः संवरस्य च कारणम्। - तत्त्वानुशासन 56. 23 तत्त्वार्थाभिगमभाष्य, सिद्धसेनगणि, 9/20 "आवश्यकनियुक्ति - 1467-1468. 25 संस्कृति के दो प्रवाह, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 222. ॐ संस्कृति के दो प्रवाह, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 222. " अपरिस्पन्दमानं ज्ञानमेव ध्यानमुच्यते। - तत्त्वार्थश्रुतसागरीयवृत्ति - 9/27. 28 'चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम्। - सर्वार्थसिद्धि - 9/20/439. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy