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________________ कहा जाता है कि शिष्यों की विरह-वेदना कम न होने के कारण उन्होंने प्रत्येक ग्रन्थ के अन्त में 'विरह' शब्द को जोड़ा है।98 . इसका दूसरा कारण यह भी माना जाता है कि हरिभद्र का एक नाम 'भवविरहसूरि' था, अर्थात् जो भव-विरह का इच्छुक हो। उनके द्वारा प्रस्तुत 'भवविरह' शब्द के पीछे निम्न तीन प्रसंग माने जाते हैं1. धर्म-स्वीकार का प्रसंग। 2. शिष्यों के वियोग का प्रसंग। 3. याचकों को दिए जाने वाले आशीर्वादरूप।92 __आपने एक निर्धन कार्पासिक व्यापारी को 'धूर्ताख्यान' श्रवण करवाकर जैन धर्मावलम्बी बनाया। व्यापार-वृद्धि बढ़ती गई और उस व्यापारी ने उसी धन से आचार्यश्री के ग्रन्थ की प्रतिलिपियां बनवाकर साधु-समुदाय को भेंट की। आपश्री ही की प्रेरणा से एक ही स्थान पर चौरासी बड़े जिन–मन्दिरों का निर्माण किया गया। अस्त-व्यस्त हो चुके 'महानिशीथसूत्र' को आपके द्वारा व्यवस्थित किया जाकर पुस्तकारूढ़ करवाया गया। हरिभद्र ने मेवाड़ में पोरवाल वंश की स्थापना करके उन्हें जैन-परम्परा में सम्मिलित किया- ऐसी अनुश्रुति ज्ञातियों का इतिहास लिखने वालों से मिली।94 प्रशंसा की प्रियता से सदा विरक्त बने आचार्य हरिभद्रसूरि का जीवन विशिष्ट व्यक्तित्व के रूप में विश्व में विश्रुत है। उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व उनकी कृतियों में 88 (क) अतिशयहृदयाभिरामशिष्यद्वयविरहोर्मिभरेण तप्तदेहः । निजकृतिमिहं संव्यधात् समस्तां विरहपदेन युतां सतां स मुख्यः ।। 206 ।। - प्रभावकचरित्र, पृ. 74. (ख) पं कल्याणविजयजी ने 'धर्मसंग्रहणी' की प्रस्तावना (प. 19 से लेकर 21 तक ) में जिन-ग्रन्थों की प्रशस्तियों में 'विरह' शब्द आता है, वे सब कृतियां उद्धत हैं। उन ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं- अष्टक, धर्मबिंदु, ललितविस्तरा, पंचवस्तुटीका, शास्त्रवार्तासमुच्चय, पंचाशक योगदृष्टिसमुच्चय, षोडशक, अनेकांतजयपताका, योगबिंदु, संसारदावानलस्तुति, धर्मसंग्रहणी, उपदेशपद और सम्बोधप्रकरण। 89 इसके अतिरिक्त 'कहावली' के कर्ता भद्रेश्वर ने तो उनके 'भवविरहसूरि' नाम का निर्देश __ प्रबन्ध में अनेक बार किया है। 90 "हरिभद्दो भणइ भयवं पिउ मे भवविरहो।" - कहावली,, पत्र 300. 91 प्रभावकचरित्र, श्रृंग- 9, श्लोक 206. 92 'चिरं जीवउं भवविरहसूरित्ति' - कहावली,, पत्र 301. 93 चिरलिखितविशीर्णवर्णभग्नप्रविवरपत्रसमूहपुस्तकस्थम् । कशलमतिरिहोद्दधार जैनोपनिषदिक स महानिशीथशास्त्रम।। - प्रभावकचरित्र, श्लोक 185 से 187, पृ. 75. 94 पण्डित श्रीकल्याणविजयजी 'धर्मसंग्रहणी' प्रस्तावना, पृ. 07. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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