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________________ अन्तस्थ सजग बना और दोनों ने संकल्प किया कि सर्वप्रथम वहां जाते ही गुरुदेवश्री के चरणों में झुककर अपनी भूल का प्रायश्चित्त करेंगे, लेकिन उस समय जो दुविधा उनके सम्मुख थी, उसके निवारण हेतु उन्होंने विचार किया। उन्होंने ब्रह्मसूत्र की रेखा खींचकर जिनप्रतिमा के आकार को विकृत रूप दिया और बड़ी कुशलता से उस पर पांव रखकर निकल गए। फिर, दोनों पठन-पाठन की सामग्री लेकर वहां से भाग निकले। संयोगवश, हंस की मार्ग में ही मृत्यु हो गई और परमहंस हरिभद्रसूरि के चरणों में आकर गिर गया तथा अपनी पुस्तक-पत्रादि गुरुदेव को सौंपकर वह भी सदा के लिए चिरनिद्राधीन हो गया। हंस की मृत्यु मार्ग में स्वतः ही हुई, अथवा किसी के द्वारा करवाई गई- इस सम्बन्ध में प्राचीन ग्रन्थों में मतैक्य नहीं है। परमहंस के वहां पहुंचने के सन्दर्भ में भी मतभेद हैं। प्रबन्ध-संग्रह के अनुसार, परमहंस हरिभद्रसूरि से मिलकर निद्राधीन हो गया। इस बीच किसी ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। प्रातः हरिभद्र ने यह देखा और क्रोधित हो गए। 2 अपने दोनों प्रिय शिष्यों की अकाल मृत्यु से वे अत्यन्त दुःखी और उद्विग्न हो गए और बौद्धों के प्रति उनके मन में प्रचण्ड क्रोध पैदा हो गया। बदला लेने की अदम्य इच्छा ने उन्हें अप्रत्याशित निर्णय पर पहुंचा दिया। महाराजा सुरपाल की अध्यक्षता में बौद्धों के साथ वाद-विवाद की स्पर्धा शुरु हुई। इस गोष्ठी की भावी परिणति अत्यन्त खतरनाक तथा हिंसात्मक थी। गोष्ठी में परास्त होने वाले दल को उबलते हुए तेल के कुण्ड में कूदने की प्रतिज्ञा के साथ ही स्पर्धा प्रारम्भ हुई।93 हरिभद्र ने स्याद्वाद के अभेद्य कवच का आश्रय लेकर बौद्ध-सिद्धांतों को धराशायी कर दिया। अब परास्त हुए पांच सौ बौद्धों को खौलते हुए तेल के कुण्ड में डाले जाने की बारी आई। तत्पश्चात् क्या स्थिति बनी, इस सम्बन्ध में मतैक्य नहीं हैं। इस सन्दर्भ में अलग-अलग मान्यताएं प्राचीन ग्रन्थों में मिलती हैं। 82 प्रातः श्रीहरिभद्रसूरिभिः शिष्य-कबन्धो दुष्टकोपः – प्रबन्धकोश, पृ. 25. 88 लिखितं वच इदं पणे जितो यः स विशतु तप्तवरिष्टतैलकुण्डे। - प्रभावकचरित्र, श्लोक- 150. " समगतं च तथैव पञ्चषास्ते निधनमवापुरनेन निर्जिताश्च। - प्रभावकचरित्र, श्लोक- 168 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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