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________________ 'याकिनी महत्तरा धर्मपुत्रत्वेन प्रख्यातः आचार्य जिनदत्त शिष्यो जिनभट्टाज्ञावर्ती च विरहाङ्कभूषितललित-विस्तरादिग्रन्थ सन्दर्भ प्रणेता सर्वेषु प्राचीनतमाः। कृतिः सिताम्बराचार्य हरिभद्रस्य, धर्मतो याकिनी महत्तरासूनोः।" उपदेश में भी कहा है जाइणिमयहरिआइ रइआ ए ए उ धम्मपुत्तेण। हरिभद्दायरिएणं भवविरह इच्छमाणेणं ।। - उपदेशपद इस प्रकार, याकिनी महत्तरा अजन्मदायिनी जननी बनी। यह सारा श्रेय सिद्धहस्त आचार्य हरिभद्र का था। हरिभद्र मुनि ने मुनिचर्या की नानाविध शिक्षाएं अपने गुरु की सान्निध्यता से संप्राप्त की और निर्दोष संयम-परिपालना में रत बन गए। आचार्य हरिभद्र गृहस्थावस्था में वैदिक-दर्शन के पारगामी विद्वान् तो थे ही, साथ ही संयम-ग्रहण करते ही जैनदर्शन के विशिष्ट विज्ञाता बने। अल्पावधि में अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के माध्यम से वे आचार्य-पद से अलंकृत हो गए। आचार्य बनते ही उन्होंने बड़ी कुशलता से जिन-शासन की बागडोर सम्भाल ली। एक दिन आचार्य हरिभद्र की संसारी-भगिनी के पुत्र हंस और परमहंस संसार से विरक्त होकर उनके (अपने मामा) के पास दीक्षित हुए। उन्होंने अपने इन दोनों प्रज्ञावंत एवं प्रिय शिष्यों को जैनागमों के साथ-साथ प्रमाणशास्त्र का विशेष ज्ञान प्रदान किया। हंस और परमहंस ने न्याय-दर्शन और वैदिक दर्शन का अध्ययन भी किया। इसके परिणामस्वरूप, उन दोनों के मन में विचार आया कि बौद्धशास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने हेतु किसी बौद्ध-आश्रम में जाकर बौद्धाचार्यों के पास अध्ययन किया जाए। उन्होंने अपने गुरु के समक्ष यह इच्छा प्रकट की। हरिभद्रसूरि ज्योतिषशास्त्र के ज्ञाता थे। उनको हंस और परमहंस के भविष्य की अनिष्ट घटना का संकेत मिल गया था। उन्होंने उन दोनों प्रिय शिष्यों को बौद्ध-विद्यापीठ जाने के लिए सहमति नहीं दी, किन्तु गुरु के आदेश का उल्लंघन कर, वेश परिवर्तित कर, वे बौद्धाश्रम में प्रविष्ट हो गए। सम्पूर्ण छात्रावास में ये दोनों महान् प्रतिभासम्पन्न छात्र थे। बौद्धाचार्य के सान्निध्य में वे दोनों बौद्ध-प्रमाणशास्त्र पढ़ते और अपने निवास पर आकर जैनदर्शन से बौद्धसूत्रों की तुलना करते तथा अपने तर्क-वितर्क पत्रों पर लिखते रहते। 76 पं. कल्याणविजयजी लिखित धर्मसंग्रहणी की प्रस्तावना, पृ. 01. " पंचसूत्रव्याख्या की प्रशस्ति में, पृ. 30. 78 उपदेशपद की प्रशस्ति में. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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