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________________ आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपनी कृतियों में स्थान-स्थान पर जिनदत्तसूरि का नाम निर्दिष्ट किया । आवश्यकवृत्ति में वे लिखते हैं “समाप्ता चेयं शिष्यहिता नाम आवश्यकटीका, कृति सिताम्बराचार्य जिनभट्टनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्ययस्य धमतो 38 याकिनीमहत्तरा सूनोरल्पमतेराचार्य हरिभद्रस्य ।" प्रस्तुत टीका में आचार्य हरिभद्र ने गुरु जिनदत्त के नामोल्लेख के साथ श्वेताम्बर - परम्परा विद्याधरकुल का नाम निर्दिष्ट किया है तथा अपने को जिनदत्त का शिष्य माना है। शिष्य के द्वारा जो नाम अपने गुरु को ज्ञात करवाया जाता है, वह अधिक प्रामाणिक तथा यथार्थता के करीब होता है, अतः आचार्य हरिभद्र की रचनाओं में उपलब्ध नाम के उल्लेख से यह ज्ञात होता है कि उनके दीक्षादाता विद्याधरकुल तिलकायमान् जिनदत्तसूरि थे। जिनभट्ट अथवा जिनभद्र उनके गच्छसंवाहक के रूप में सम्भव हो सकते हैं । गुरुचरणों की सन्निधि में पहुंचते ही विद्वान् हरिभद्र को पहली बार एक अनूठी प्रसन्नता की अनुभूति हुई । गुरु- चरणों में नतमस्तक होकर उन्होंने अपने हृदय की तीव्र जिज्ञासा को शान्त करने का उपाय पूछा। गुरुदेव का कथन था कि 'पूर्वोपर सन्दर्भ सहित सिद्धान्तों को समझने के लिए श्रमण - जीवन को स्वीकार करना अनिवार्य है। हृदय में पनप रही अर्थ-बोध प्राप्त करने की पीड़ा को शान्त करने हेतु हरिभद्र ने मुनिवेश धारण करने के लिए तुरन्त निर्णय ले लिया। वे गुरु के कर-कमलों से दीक्षित हुए और साथ ही याकिनी महत्तरा के उस श्लोक के अर्थ का ज्ञान भी प्राप्त किया । हरिभद्र मुनि ने याकिनी महत्तरा के प्रति अहोभाव अथवा कृतज्ञता - भाव प्रकट करते हुए कहा- "मैं शास्त्र-विशारद होकर भी मूर्ख था । सुकृत के संयोग से निजकुल-देवता के समान धर्ममाता याकिनी से बोध को प्राप्त हुआ हूं।" इस प्रकार, स्वयं को याकिनी का धर्मपुत्र मानकर उन्होंने अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की। जैन - शासन के लिए महान् धुरंधर आचार्य ने उपकारी आर्या को विश्व के समक्ष चिरस्मरणीय बना दिया, यही उनके हृदय की महानता, विशालता का प्रत्यक्ष प्रमाण है । हरिभद्र के अतिरिक्त अन्य आचार्यों ने भी अपनी-अपनी रचनाओं में हरिभद्र को 'याकिनी महत्तरासुनू' कहकर सम्बोधित किया है, जैसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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