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कृति निर्विवाद रूप से जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रची गई है। कृतिकार ने अपनी इस कृति का नाम समय - क्षेत्र - समास अथवा क्षेत्र - समास - प्रकरण रखा है। इस विषय पर लिखी गई अन्य कृतियों की अपेक्षा प्रस्तुत कृति बृहत् अर्थात् बड़ी होने के कारण इस कृ ति की ख्याति बृहत्क्षेत्रसमास नाम से हुई।
4. विशेषणवती
आगमिक-मान्यताओं को विशिष्ट रूप से परिपुष्ट करने की दृष्टि से लिखी गई इस कृति का नाम विशेषणवती सार्थक ही है। इस ग्रन्थ में जैन - सिद्धान्तों के पोषण तथा उनके सम्बन्ध में उठाई गई विसंगतियों के निवारण का प्रयत्न हुआ है। जिनभद्रगणि का कहना है कि आगम और हेतु (तर्क) में भी आगम को मुख्य स्थान दिया गया है । आगम का स्थान सर्वश्रेष्ठ होना स्वाभाविक है, क्योंकि 'आगम' वीतराग की वाणी है। हेतु (तर्क) और युक्तियों के माध्यम से आगमवाणी का आस्वादन नहीं होता है। इस ग्रन्थ में बलपूर्वक उक्त कथन की पुष्टि की गई है। 56
विशेषणवती नामक यह ग्रन्थ चार सौ पद्यों में निर्मित हुआ है। इसमें वनस्पति-जगत् एवं अवगाह (आकाश) आदि अनेक विषयों की विवेचना है । सुविख्यात प्राचीनतम ग्रन्थ 'वसुदेवहिण्डी' का निर्देश भी प्रस्तुत ग्रन्थ में मिलता है जो ऐतिहासिक कथानकों का राजा है। जर्मन विद्वानों ने गुणाढ्य की बृहत्कथा से इसकी तुलना की थी। विशेषणवती ग्रन्थ में वसुदेवहिण्डी का वर्णन होने के कारण इसकी प्राचीनता स्पष्ट रूप से झलकती है । केवलज्ञान और केवलदर्शन को एक मानने वाले सिद्धसेन दिवाकर का और मल्लवादी के भाष्य की मान्यताओं का विशेषणवती में पूर्ण रूप से खण्डन किया गया है ।
5. अनुयोगचूर्णि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अनुयोगचूर्णि की रचना की थी । इस चूर्णि की रचना अनुयोगसूत्र के अंगुल पद के आधार पर की गई थी। वर्त्तमान में इस चूर्णि का समावेश जिनदास महत्तर की अनुयोगचूर्णि में है तथा यह आचार्य हरिभद्र की अनुयोगद्वार - टीका में भी उद्धृत है । वर्त्तमानकाल में प्रस्तुत ग्रन्थ स्वतन्त्र रूप से अप्राप्य
है ।
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56 विशेषणवती,, पद्य - 274.
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