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चूंकि शुक्लध्यान का सम्बन्ध आत्मा की पवित्रता से है, इसलिए इन्हें शुक्लध्यान के आलम्बन के रूप में कहा गया है, फिर भी ग्रन्थकार का कहना है कि शुक्लध्यान का मुख्य लक्ष्य मन को अमन की स्थिति में ले जाना और निर्विकल्प बनाने की पहली शर्त -उसे अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध में ले जाना है। तत्पश्चात्, आर्त्तध्यान तथा रौद्रध्यान के चिन्तन के विषय का वर्णन किया गया है। धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान में आलम्बन आवश्यक है अथवा नहीं है, इसकी चर्चा की गई है और अन्त में निरालम्बन को महत्त्व देते हुए इस अध्याय को समाप्त कर दिया गया है।
चतुर्थ अध्याय
प्रस्तुत कृति का चतुर्थ अध्याय मुख्यतया आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल-ध्यान के स्वामी से सम्बन्धित रहा है। ध्यानशतक के अनुसार, आर्तध्यान की सम्भावना छठवें गुणस्थान तक बनी रहती है, क्योंकि छठवें गुणस्थान तक प्रमाद की सत्ता बनी रहती है और जहाँ प्रमाद होता है, वहाँ सजगता नहीं रहती। निदान को छोड़कर आर्तध्यान के प्रथम तीन भेद छठवें गुणस्थान में रहते हैं। आगे, ग्रन्थकार ने श्रमणों को आर्तध्यान के त्याग का निर्देश किया है।
रौद्रध्यान की सत्ता अविरत और देशविरत गुणस्थान में बनी रहती है। इन दोनों गुणस्थानों में आर्तध्यान भी रहता है, किन्तु अन्तर मात्र इतना है कि आर्त्तध्यान की अपेक्षा रौद्रध्यान अतिसंक्लिष्ट–अध्यवसाय वाला होता है।
धर्मध्यान के स्वामी के सन्दर्भ में प्राचीनकाल से दो सम्प्रदायों की भिन्न-भिन्न मान्यताएं रही हैं – (1) दिगम्बर-परम्परा में धर्मध्यान की सत्ता को चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक माना गया है, जबकि (2) श्वेताम्बर–परम्परा का यह मानना है कि धर्मध्यान सातवें गुणस्थान से प्रारंभ होकर बारहवें गुणस्थान तक ही सम्भव है। तत्पश्चात्, धर्मध्यान में पूर्ण रूप से अभ्यस्त हो जाने के बाद जो पूर्व के ज्ञाता और सुप्रशस्त–संहनन वाले श्रमण हैं, वे शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों पृथक्त्ववितर्क-विचार और एकत्ववितर्क-अविचार के अधिकारी होते हैं।
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