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आगम-सूत्रों में भी शोचादि का वर्णन मिलता है। 183 आत्म-परिणामों की शुद्धता के लिए नियमों की परमावश्यकता है। शोचभाव से सात्त्विक भावों की वृद्धि, सन्तोषभाव से उच्चतम आत्मिक-सुख की प्राप्ति, स्वाध्याय के माध्यम से अभीष्ट दर्शन की उपलब्धि, तप से इन्द्रियविजय तथा ईश्वरप्रणिधान से आत्म-समाधि का लाभ मिलता है। जैनदर्शन में इन पांचों का उल्लेख तो है ही, साथ ही बत्तीस योगसंग्रहों का उल्लेख भी नियम के रुप में मिलता है। 184
3. आसन :
___ योग के अष्टांगों में तीसरा स्थान आसन का है। पातंजल योगसूत्र के अनुसार आसन-सुख एवं स्थिरतापूर्वक विभिन्न प्रकार की शारीरिक-मुद्राओं में बैठना आसन है।185 ध्यान तथा योगमार्ग पर आगे बढ़ने के लिए आसन-सिद्धि की परमावश्यकता मानी गई है।
जैनागमों में बहिरंग-तप का एक प्रकार है –कायक्लेश। कायक्लेश के अन्तर्गत आसनों का विवेचन आता है। उसमें भी विविध प्रकारों के आसनों का विवरण मिलता है।186 वीरासन, पद्मासन, कमलासन, गोदोहासन, सुखासन इत्यादि अनेक प्रकारों के आसनों का जैन-ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है। 87 .
इन आसनों के अभ्यास के द्वारा चित्त स्वतः ही अपनी अस्थिर प्रवृत्तियों को त्यागकर एकाग्र होने लगता है। आसन के संदर्भ में हेमचन्द्र ने एक महत्त्वपूर्ण बात
183 'किं ते भंते! जत्ता ? सोमिला। जमे तव नियमसंजमसज्झायज्झाणावस्समयादीएस
जोगेसु जयणा से ततं जत्ता'। -भगवतीसूत्र श.18, उत्तराध्ययन 10 सू. 646 184 बत्तीसं जोगसंगहा पं. तंजहा-1 आलोयण .. .........आराहणाय मरणंते' -समवायांग, समवाय 32 185 'स्थिरसुखमासनम् । -योगदर्शन, 2-46 186 ‘से किं तं कायकिलेसे। अणेगविहे पण्णते तं जहा-ठाणट्ठितिए-ढाणाइए –औपपा.सृ.बाह्यत सू. 19 . 187 इसके लिए दशाश्रुतस्कंधसूत्र की सातवीं दशा का अवलोकन करना चाहिए।
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