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________________ 428 3. चित्तवृत्ति के प्रति सजगता और, 4. चित्तवृत्ति की निर्विकल्पता इस क्रम को यदि गहराई से देखें, तो ऐसा लगता है कि दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। जैन-परम्परा में भी ध्यान के सन्दर्भ में श्वासोश्वास के प्रति तथा शारीरिक संवेदना के प्रति सजगता की चर्चा हमें मिलती है। जैन-परम्परा में 'आवश्यकचूर्णि' में कहा गया है -साधक सांवत्सरिक-प्रतिक्रमण के समय 1000 श्वासोश्वास का, चातुर्मासिक-प्रतिक्रमण के समय 500 श्वासोश्वास का, पाक्षिकप्रतिक्रमण के समय 250 श्वासोश्वास का, दैवसिक-प्रतिक्रमण के समय 100 और रात्रिक-प्रतिक्रमण के समय 50 श्वासोश्वास का ध्यान करे। 72 इस प्रकार, 'योगशास्त्र' में हेमचन्द्राचार्य ने कहा है कि साधक को ध्यान में शारीरिकसंवेदनाओं के प्रति सजग होना चाहिए।73 । दोनों ही पद्धतियों में ध्यान का अन्तिम चरण तो चित्त की निर्विकल्पता ही है और इस प्रकार हम कह सकते हैं कि दोनों साधना-पद्धतियाँ साधना के प्रायोगिक पक्ष में किंचित् मतभेद होते हुए भी एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर हैं और दोनों का अन्तिम लक्ष्य तो चित्त की निर्विकल्पता ही है। बौद्ध-परम्परा में इस ध्यान-विधि का विकास विपश्यना के रुप में हुआ, तो जैन-परम्परा में इसे प्रेक्षाध्यान कहा गया है। किन्तु वस्तुतः यह दोनों भी साक्षीभाव या ज्ञाता–दृष्टाभाव की साधना है और इस दृष्टि से दोनों के लक्ष्य में कोई अन्तर नहीं, यहाँ तक कि योगसूत्र में चित्तवृत्ति के निरोध को ही योग माना गया है। जिसे जैन-परम्परा में योगनिरोध कहा गया है, उसे बौद्ध-परम्परा में चित्तवृत्ति का निरोध कहा है। 12 आवश्यकचूर्णि, उत्तरभाग, पृ. 265 (कायोत्सर्ग अध्ययन) 173 योगशास्त्र, प्रकाश 4, श्लोक 70, 73, 77, 116 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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