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________________ 427 विकल्प समाप्त होकर निर्विकल्प बोध की स्थिति बनती जाती है। इसमें चित्तवृत्ति की सजगता के परिणाम स्वरुप निर्विकल्प स्थिति न होकर निर्विकल्पबोध होता है।167 जैन-साधना पद्धति और बौद्ध-साधना पद्धति - ये दोनों पद्धतियाँ यह मानकर चलती हैं कि राग-द्वेष और तज्जन्य मोह एवं तृष्णा ही दुःख का मूलभूत कारण है और यह विकल्परुप है। जैन-परम्परा का प्रथम आगम-अंग 'आचारांगसूत्र' में कहा है कि –कामनाओं का पार पाना बहुत कठिन है। इसी बात को और गहराई से समझने के लिए आगे कहा है -“हे धीर पुरुष, आशा-तृष्णा और स्वच्छन्दता का त्याग कर। तू स्वयं ही इन कांटों को मन में रखकर दुःखी हो रहा है। 169 यही बात बौद्ध-ग्रन्थ में कही गई है कि इच्छावृद्धि पापवृद्धि का कारण है, इच्छावृद्धि से दुःख होते हैं, अतः इच्छा को दूर करने पर पाप स्वतः ही दूर हो जाएंगे और पाप के दूर होते ही दुःख दूर होने में समय नहीं लगता,170 क्योंकि तृष्णा एक जैसी वस्तु है, जिससे उपाधि बढ़ती है और जहाँ उपाधि बढ़ी, वहाँ दुःख बढ़ता जाता है। यह विकल्पता की स्थिति है, इसलिए निर्विकल्प को प्राप्त करना ही ध्यान-साधना का मूलभूत लक्ष्य है। इस हेतु जैन-परम्परा में शरीर की स्थिरता, वाणी का मौन, मन की एकाग्रता और अंत में व्युत्सर्ग की वृत्ति से ही ध्यान की पूर्णता होती है। बौद्ध-परम्परा में इसे विपश्यना के माध्यम से किंचित् भिन्न रुप से समझाया गया है, वहाँ क्रम इस प्रकार है - 1. श्वासोश्वास के प्रति सजगता 2. शारीरिक-संवेदनाओं के प्रति सजगता 167 'परमसुख-विपश्यना' – कन्हैयालाल लोढ़ा, पुस्तक की भूमिका से उद्धृत, पृ.4 168 कामा दुरतिक्कमा। - आचारांगसूत्र, 1/2/5 169 आसं च छंदं च विगिंच धीरे! तुमं चेव सल्लमाहटू। - वही, 1/2/4 17 छन्दजं अधं, छन्दजं दुक्खं, छन्दविनया, अधविनयो, अधविनया दुक्ख विनयो। - संयुक्त निकाय, 1/1/34 171 ये तण्हं वड्āति ते उपधिं वड्ढेति। ये उपाधिं वड्ढेति ते दुक्ख वड्ढेति। - वही, 2/6/66 Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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