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18. जैनतर्क-परिभाषा - यह ग्रन्थ तीन परिच्छेदों में विभक्त है- 1. प्रमाण, 2. नय और 3. निक्षेप। इन विषयों को युक्तिसंगत विवेचित किया गया है। 19. यतिलक्षणसमुच्चय- इस ग्रन्थ में श्रमणों के सात लक्षणों को विस्तृत रुप से वर्णित किया है।
20. नयरहस्य - इस ग्रन्थ में सात नय का वर्णन है।
21. नयप्रदीप - इसमें 400-400 श्लोक-परिमाण में दो सर्गों का विभाजन कर एक में सप्तभंगी, दूसरे में नयसमर्थन है। 22. ज्ञानबिन्दु - इस ग्रन्थ में ज्ञान के प्रकार, लक्षण, स्वरुप का वर्णन है।
23. न्यायखण्डनखण्डखाद्य - इस ग्रन्थ में उपाध्यायश्री की नव्यन्यायशैली की विशिष्टता दिखाई देती है। यह ग्रंथ अर्थ-गंभीरता की अपेक्षा से कठिन है। इसकी श्लोक संख्या 5500 है। 24. न्यायालोक - इस ग्रन्थ की मुख्य विषय-वस्तु है –गौतमी-न्याय तथा बौद्ध-न्याय के एकांतवाद की समालोचना। यह प्रकरण तीन विभागों में बंटा हुआ है - 1. मुक्ति, आत्मविभूत्व, आत्मसिद्धि और ज्ञान - ये चार वाद-स्थान है। 2. ज्ञानद्वैत - खंडन, समवाय, चक्षु की अप्राप्तकारिता और अभाव इनका समीक्षणात्मक-अध्ययन तथा 3. धर्मास्तिकाय आदि षद्रव्यों तथा उनकी पर्यायों का विश्लेषण किया गया है।
25. वादमाला - प्रस्तुत ग्रन्थ तीन प्रकरणों में विभाजित है। प्रथम भाग में स्वत्ववाद, सन्निकर्ष, विषयतावाद का विश्लेषण। द्वितीय भाग में वस्तुलक्षण, सामान्य, विशेषवाद आदि छ: विषयों का उल्लेख और तृतीय भाग में चित्ररुप, लैंगिकभानवाद आदि सात विषयों का समावेश किया गया है। 26. 'अनेकान्त-व्यवस्था' - इस ग्रन्थ में अनेकान्त के स्वरुप की चर्चा है। 27. अस्पृशद्गतिवाद - इसमें सिद्धात्मा का आकाश-प्रदेशों के स्पर्श के बिना लोकान्त पर स्थिरता का वर्णन है।
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