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________________ 406 अध्यात्मोपनिषद एवं ज्ञानसार के संदर्भ में उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद नामक साध्वी डॉ. प्रीतिदर्शनाश्री शोधप्रबन्ध के आधार पर उनकी गुरु-परम्परा इस प्रकार थी - गुरु-शिष्य परम्परा हीरविजय विजयसेनसूरि कीर्तिविजयजी विनयविजय विजयदेवसूरि (उपाध्याय) विजयसिंह विजयप्रभ कल्याणविजयजी लामविजयजी जीतविजय नयविजयजी यशोविजय पद्मविजय114 यशोविजय ने अपने गुरु तथा गुरुभ्राता की निश्रा में बहुत ही गहराई से, सूक्ष्मता से विद्याध्ययन किया और कुछ ही समय में वे अनेक विद्याओं में पारंगत हो गए। यह बात स्वयं यशोविजयजी ने 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' में लिखी है।115 एक बार अहमदाबाद के सुश्रावक धनजी-सूरा के आग्रह पर यशोविजयजी अपने गुरु के साथ काशी की ओर प्रस्थान किया। वहाँ षड्दर्शनों के ज्ञाता तथा नव्यन्याय के एक विद्वान् के पास अध्ययन करके मात्र तीन वर्षों में व्याकरण, तर्क, न्याय, षड्दर्शन आदि अन्य शास्त्रों के ज्ञाता बन गए। कश्मीर से आए एक पण्डित 114 क) 'उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रंथ, पृ. 24-25 ख) 'उपाध्याय यशोविजय का अध्यात्मवाद, अध्याय 1, पृ. 5 15 तास पाटि विजय देवसूरीस्वर महिमावंत निरीहो तास पाटि विजयसिंह सूरीसर सकल सूरिमां लीहो। ते गुरूना उत्तम उद्यमयी गीतारथ गुण वाध्यो रे तस हित सीखतणइ अनुसारइ ज्ञानयोग ओ साध्यो रे।। - द्रव्यगुणपर्यायनोरास, 17/4 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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