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________________ ____405 माता सौभाग्यदेवी ने जसवंत की अद्भुत प्रज्ञा को देखकर अपने पुत्र को नयविजयजी के चरणों में सौंप दिया। दीक्षा–महोत्सव अणहिलपुर पाटण में हुआ। बालक जसवंत से जशविजय बन गया।10 कुछ समय पश्चात् उनके भाई पद्मसिंह ने भी संयम अंगीकार किया और वह पद्मविजय के रुप में विख्यात हुए। दोनों की बड़ी-दीक्षा दाता विजयदेवसूरि थे।" इस बात की पुष्टि अधोलिखित पद्य से होती है - पदमविजय बीजो वलीजी, तस बांधव गुणवंत तेह प्रसंगे प्रेरियोजी ते पणि थयो व्रतवंत।। - 12 विजयदेव-गुरु हाथनी जी वली दीक्षा हुई खास। बिहुने सोल अठयासियेजी करता योग अभ्यास ।।- 13 यशोविजयजी के शिक्षा-दीक्षा गुरु नयविजयजी हैं, यह यशोविजयजी स्वयं ने 'जैनतर्कभाषा की प्रशस्ति' में कहा।112 गुरुपरम्परा – उपाध्यायश्री स्वयं ने अपनी कृति की वृत्ति में, जैसे -स्वोपज्ञ प्रतिमाशतक तथा अध्यात्मोपनिषद में गुरु-परम्परा का वर्णन किया। 13 ‘उपाध्याय यशोविजय स्वाध्याय ग्रन्थ', सम्पादक-प्रद्युम्नविजय गणिवर तथा अध्यात्मसार, 110 अणहिलपुर पाटणि जइजी, ल्यो गुरू पासे चारित्र। यशोविजय अहवी करीजी थापना नामनी तत्र। -सुजसवेलीभास, गा. 1/4 III 'यशोदोहन' में इस दीक्षा का काल वि.सं. 1688 दिया है और यह दीक्षा हीरविजय के प्रशिष्य एवं विजयसेनसूरिज के शिष्य विजयदेवसूरि. ने दी थी, ऐसा वर्णन है। - पृ.7 ॥ भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदा - जैनतर्कभाषा की प्रशस्ति । क) श्री हीरान्वयदिनकृति प्रकृष्टोपाध्यायास्त्रिभुवनगीतकीर्तिवृन्दाः। षट्तीयदृढपरिरंभभाग्यभाजः कल्याणोत्तरविजयाभिघाबभकः तच्छिष्याः प्रतिगुणधाम हेमसूरेः श्री लाभोत्तरविजयभिधा बभूवुः । श्री जीतोत्तरविजयाभिधान श्री नय विजयौ तदीयशिष्यौ।। तदीय चरणाम्बुजश्रयणाविस्फुरद्भारती प्रसाद सुपरीक्षितप्रवरशास्त्ररत्नोच्चयै।। जिनागमे विवेचने शिवसुखार्थिनां श्रेयसे यशोविजयवाघकैरयमकारि तत्त्वश्रमः ।। उ.यशोविजयजीकृत प्रतिमाशतक' टीकाकर्तु प्रशस्ति, श्लोक14-15-16 ख) इति जगद्गुरुविरुद्धधारिश्री हीरविजयसूरीश्वरशिष्य षट्तर्क विद्याविशारद। महोपाध्याय श्री कल्याणविजयगणिशिष्य शास्त्रज्ञ तिलकपंडित श्रीलाभविजयगणि शिष्य मुख्यपण्डित जीतविजयगणिसतीर्थ्यालंकारपण्डित-श्रीनयविजयगणि चरणकणचंचरीक पण्डित पद्मविजयगणि सहोदर न्यायविशोरद महोपाध्याय श्री यशोविजयगणि प्रणीतं समाप्तमिदमध्यात्मोपनिषदत्प्रकरणम -उ. यशोविजयकृत 'अध्यात्मोपनिषद' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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