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जैन–परम्परा में तान्त्रिक-साधना सम्बन्धी ग्रन्थों की रचनाओं में - ज्वालामालिनीकल्प (दसवीं शती), निर्वाणकालिका (दसवीं-ग्यारहवीं शती), मन्त्राधिराजकल्प (बारहवीं शती), मन्त्रराजरहस्यम् (तेरहवीं शती), विद्यानुवाद, विद्यानुवाद अंग, विद्यानुशासन, ज्ञानार्णव, योगशास्त्र (बारहवीं शती), एकीभाव स्तोत्र, रिष्टसमुच्चय एवं महाबोधिमन्त्र, भैरव-पद्मावतीकल्प, सरस्वतीकल्प, प्रतिष्ठांतिलकम्, सूरिमन्त्रकल्प, सूरिमन्त्रबृहद्कल्पविवरण, देवता अवसर विधि, मायाबीजकल्प, सूरिमुख्यमन्त्रकल्प, लब्धिफलप्रकाशकल्प और ऋषिमंडलमंत्रकल्प आदि ग्रन्थ मिलते हैं। ये लगभग बारहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के मध्य के ही माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त, अनुभवसिद्धमंत्रद्वात्रिंशिका, चिन्तामणिपाठ, चिन्तारणि, संक्षिप्तसूरिमंत्रविचार, सूरिमंत्र-संगृह, कोकशास्त्र, मंत्र-यंत्र-तंत्रसग्रह, ' मंत्रशास्त्र, सूरिमन्त्रकल्पसंदोह, नमस्कार स्वाध्याय, लघुविद्यानुवाद, मंत्र चिन्तामणि, मंत्रविद्या, मंत्रशक्ति आदि जैन मंत्र तंत्र और यन्त्रों का एक अच्छा खासा संकलन मिलता है।
आचार्य महाप्रज्ञजी की मंत्र : एक समाधान नामक पुस्तक में करीब 320 मंत्रों का संकलन और मुनि प्रार्थनासागरजी की कृति 'मंत्र, यंत्र और तंत्र' 99 पुस्तक में लगभग 379 मत्रों के संकलन के साथ-साथ उसी में 'स्वास्थ्य अधिकार' में करीब 140 नुस्खे उल्लेखित हैं।
उपर्युक्त प्रमाणों के आधार से हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि ध्यान -साधना आदि के क्षेत्र में तान्त्रिक दृष्टि से मन्त्र-साधना का प्रवेश तथा उनके तान्त्रिक प्रभावों की चर्चा और उनके विधिविधान लगभग तेरहवीं शताब्दी से प्रमुख बन गए थे।
यद्यपि इस संदर्भ में डॉ. सागरमल जैन आदि अनेक विद्वानों की यह मान्यता है कि जैन-परम्परा में ध्यान और योग-साधना में तान्त्रिक-प्रभाव मुख्य रुप से
98 मंत्र : एक समाधान' -आचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं 99 'मंत्र यंत्र और तंत्र' पुस्तक पृ. 13-15
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