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मन्त्र-तन्त्र का विकास हो गया था। 92 वस्तुतः, तन्त्र शब्द व्यवस्था या आगमिकव्यवस्था का वाचक है। आचार्य हरिभद्र द्वारा विरचित पंचाशक 93 तथा ललितविस्तरा नामक शक्रस्तव की टीका में तन्त्र शब्द दृष्टिगोचर होता है, यद्यपि उन्होंने व्यवस्था या संघीयमर्यादा के अर्थ में ही तन्त्र शब्द का प्रयोग किया है। उनके ग्रन्थों पर तान्त्रिक-साधना का प्रभाव कम ही देखा जाता है। 'श्री तन्त्रालोक' नामक पुस्तक में तन्त्र शब्द का अर्थ शासन किया है। हिन्दूतन्त्र और बौद्धतन्त्र का सर्वप्रथम प्रभाव शुभचन्द्र के 'ज्ञानार्णव' 96 और हेमचन्द्र के 'योगशास्त्र'' पर देखा जाता है, जहाँ प्राणायाम आदि की चर्चा विस्तार से हुई है तथा ध्यान के संदर्भ में भी पिण्डस्थ, पदस्थ, रुपस्थ तथा रुपातीत-ध्यानों की और पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी तथा तत्त्वभू आदि धारणाओं के उल्लेख भी वहाँ मिलते हैं, लेकिन विद्वानों ने इसे हिन्दु और बौद्ध-तंत्रों का प्रभाव ही माना है। इसी प्रकार, वर्धमानविद्या और गणिविद्या की साधना मुख्य रुप से नौवीं-दसवीं शती से ही प्रारम्भ हो गई थी -ऐसा लगता है, किन्तु प्रारम्भ में ये साधनाएँ नमस्कारात्मक ही रहीं, यद्यपि इनमें लब्धिधारियों के प्रति वन्दन का ही भाव रहा है।
तान्त्रिक-साधनाओं और विशेष रुप से षडकर्म, अर्थात् मारण, मोहन, उच्चाटन, स्तंभन, वशीकरण आदि का प्रवेश जैन-परम्परा में बाद में ही हुआ। यद्यपि जयपायड (लगभग चौथी शती), उवसग्गहरंस्तोत्र (लगभग छठवीं शती), भक्तामरस्तोत्र (लगभग सातवीं शती), विषापहार स्तोत्र (सातवीं शती) आदि प्राचीनकालीन है, किन्तु उनमें भी तान्त्रिक-साधना की दृष्टि से कोई विशेष चर्चा नहीं है।
92 प्रस्तुत संदर्भ "जैनधर्म और तान्त्रिकसाधना', से उद्धृत, अध्याय-11, पृ. 348 9 तंतणीतीए .....पंचाशक प्रकरण, 2/44, पृ. 34 94 एक सम्प्रदाय को तन्त्र के नाम से अभिहित किया; रागादिविषपरमन्त्ररूपाणि... । ललितविस्तरा, पृ. 57-58, 258 95 'श्रीतन्त्रालोक' - सं. डॉ. परमहंसमिश्र, प्रथम भाग पृ.7 % ज्ञानार्णव, सर्ग 34 और 35 97 योगशास्त्र, प्रकरण-7 और 8
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