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दूसरी परम्पराओं के संबंध में उनके ज्ञान गाम्भीर्य से भी यह स्पष्ट होता है कि उनका जन्म और शिक्षा-दीक्षा ब्राह्मण-कुल में ही हुई होगी।
वे राजपुरोहित के पद पर आसीन थे। उन्हें अपने पाण्डित्य पर गर्व था और पाण्डित्य के गर्व से गर्वित होकर उन्होंने यह संकल्प किया कि जिस किसी का पढ़ा हुआ, कहा हुआ मैं नहीं समझ सका, तो उसके शिष्यत्व को स्वीकार कर लूंगा। किसी एक समय जैन साध्वी के मुख से निकली निम्न गाथा की ध्वनि उनके कानों से टकराई -
चक्कीदुर्ग हरिपणगं पणगं चक्की केसवो चक्की। केसव चक्की केसव दु चक्की केसी अ चक्की अ।।" लाख कोशिश के बावजूद भी वे गाथा का अर्थ नहीं समझ सके, अर्थ समझने के लिए उन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की। संयम-जीवन की चर्या में कोई दोष न लग जाए, इस हेतु उन्होंने सूक्ष्मता से जैन-ग्रन्थों का अध्ययन किया और अल्प समय में आगम-ग्रन्थों के ज्ञाता बने।
___ हरिभद्र के युग में जैन-परम्परा के श्रमण एवं त्यागी-वर्ग में शिथिलाचार आ चुका था, इसलिए सम्बोधप्रकरण में हरिभद्र ने अपने युग में फैले इस शिथिलाचार का खंडन किया।
पंचाशक-प्रकरणम् नामक पुस्तक की भूमिका में डॉ. सागरमल जैन ने कहा है -"प्रतिभाशाली और विद्वान होना वस्तुतः तभी सार्थक होता है, जब व्यक्ति में सत्यनिष्ठा और सहिष्णुता हो। आचार्य हरिभद्र उस युग के विचारक हैं जब भारतीय-चिन्तन में और विशेषकर दर्शन के क्षेत्र में वाक्-छल और खण्डन–मण्डन की प्रवृत्ति बलवती बन गयी थी। प्रत्येक दार्शनिक स्वपक्ष के मण्डन एवं परपक्ष के खण्डन में ही अपना बुद्धि-कौशल मान रहा था। मात्र यही नहीं, दर्शन के साथसाथ धर्म के क्षेत्र में भी पारस्परिक-विद्वेष और घृणा अपनी चरमसीमा तक पहुंच चुकी थी। स्वयं आचार्य हरिभद्र को भी इस विद्वेष भावना के कारण अपने दो
37 आवश्यकनियुक्ति, गाथा- 421
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