________________
371
3. स्थानांगसूत्र में ध्यान -
द्वादशांगी का तीसरा अंग ‘स्थानांगसूत्र' है। इसकी विषयवस्तु का संख्या के क्रमानुसार स्थानों के रुप में विषयों का वर्णन किया गया है। इसी स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान के अन्तर्गत प्रथम उद्देश्य में चार ध्यानों की सुन्दर विवचेना की गई है। सूत्र में प्रत्येक ध्यान के प्रकारों, उपप्रकारों, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षा का विस्तार से उल्लेख किया गया है।
ध्यान के चार प्रकार माने गए हैं - 1. आर्तध्यान, 2. रौद्रध्यान, 3. धर्मध्यान और 4. शुक्लध्यान। इसमें क्रमशः प्रथम तथा द्वितीय दो ध्यान अप्रशस्त (अशुभ) तथा शेष दो ध्यान प्रशस्त (शुभ) माने गए हैं। अप्रशस्त ध्यान साधना के लिए अनुपयोगी तथा व्यवधानात्मक हैं, क्योंकि ये संसारवृद्धि का कारण हैं। जबकि प्रशस्त-ध्यान मुक्ति के हेतु हैं।
मानसिक-दुःख को उत्पन्न करने वाला ध्यान 'आर्तध्यान' है। इसके अमनोज्ञ, मनोज्ञ, आतंक और प्रीतिकारक -ऐसे चार उपप्रकार हैं। क्रन्दनता, शोचनता, तेपनता और परिदेवनता -ये आर्तध्यान के लक्षण हैं। हिंसादि क्रूर प्रवृत्तियों में निरंतर मानसिक-परिणति रुप एकाग्रता रौद्रध्यान है। इसके हिंसानुबन्धी, मृषानुबंधी, स्तेयानुबंधी और संरक्षणानुबंधी -ऐसे चार उपप्रकार हैं। उत्सन्न, बहुदोष, अज्ञान, आमरणान्त -ये रौद्रध्यान के लक्षण हैं। तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत श्रुत-धर्म और चारित्र-धर्म के चिन्तन-मनन में एकाग्रता धर्मध्यान है। आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान-विचय ये धर्मध्यान के उपप्रकार हैं तथा आज्ञा, निसर्ग, सूत्र और अवगाढ़रुचि –ये उसके लक्षण हैं। वाचना, प्रतिप्रच्छना, परावर्तना और अनुप्रेक्षा -ये धर्मध्यान के आलम्बन तथा एकत्व, अनित्य, अशरण और संसार -ये धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं। कर्मक्षय के कारणभूत शुद्धोपयोग में लीन रहना शुक्लध्यान कहलाता है। पृथक्त्ववितर्कविचार, एकत्ववितर्कविचार, सूक्ष्मक्रिया-अनिवृत्ति और समुच्छिन्नक्रिया-अप्रतिपाती -ये शुक्लध्यान के उपप्रकार हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org