________________
370
आचारांग के उपर्युक्त सन्दर्भो से यह स्पष्ट होता है कि महावीर की ध्यानसाधना बाह्य तथा आभ्यन्तर -दोनों प्रकारों से थी। वे कषायरहित, आसक्तिरहित आत्मसमाधि में अभिरत होकर ध्यान करते थे।
2. सूत्रकृतांग में ध्यान -
द्वादशांगी के द्वितीय ग्रंथ सूत्रकृतांगसूत्र में वीरत्थवो (वीर-स्तुति) नामक छठवें अध्ययन के अन्तर्गत विविध उपमाओं से भगवान् की श्रेष्ठता का वर्णन किया गया है, उसी में भगवान् महावीर के ध्यान का बहुत ही सुन्दर उल्लेख हुआ है। महावीर धर्मध्यान से भी ऊपर उठकर शुक्लध्यान की रमणता में लीन थे। ..
सूत्रकृतांग के छठवें अध्ययन के गाथा क्रमांक-16 में कहा गया है कि भगवान् का सर्वोत्तम ध्यान शुक्लध्यान है, जो शंख, चन्द्र आदि अत्यन्त शुक्ल वस्तुओं के समान विशुद्ध और सर्वथा निर्मल था। वे अनुत्तरध्यान के स्वामी कहे गए हैं। अनुत्तर, अर्थात् जिससे श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है। शुक्लध्यान, ध्यान की सर्वोच्च अवस्था का प्रतीक है।
इसी सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध में 'वीर्य' नामक आठवें अध्ययन के अन्त में पण्डितवीर्य-साधना के आदर्श के संबंध में जो गाथाएँ हैं, वे बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। दूसरी गाथा के प्रथम दो चरणों में लिखा है कि साधु ध्यानयोग को सम्यक् प्रकारेण ग्रहण करे, फिर काया का व्युत्सर्ग करे। ध्यान का सम्यक् ग्रहण से यहाँ अभिप्राय यह है कि लम्बे समय के अभ्यास से ध्यान में एकाग्रता, दृढ़ता, स्थिरता प्राप्त करना है। ऐसी स्थिरता से देहातीत-अवस्था की प्राप्ति होती है।
12 सयणेहिं, तस्सुवसग्गा, भीमा आसी अणेगरूवाय...... । – वही- 1/9/2/7-9, पृ. 328 13 अणुत्तरं धम्ममुईरइता अणुत्तरं झाणवरं झियाई।
सुसुक्कसुक्कं अपगंऽसुक्कं संखेदु वेगंतवदातसुक्कं ।। - सूत्रकृतांगसूत्र/1श्रुतस्कंध/6 अध्ययन/16 गाथा/पृ. 323 1" झाणजोगं समाहटु, कायं विउसेज्ज सव्वसो।। – वही, 1/8/26/पृ. 354
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org