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'आवश्यकनियुक्ति' में कहा गया है कि ध्यानसिद्धि के लिए कायोत्सर्ग एक अनिवार्य अंग है, बिना कायोत्सर्ग के ध्यान सिद्ध हो ही नहीं सकता, क्योंकि चित्त की स्थिरता ही ध्यान है। प्रवृत्ति-निवृत्ति का सन्तुलन, स्वयं की भूलों को देखना, कर्मक्षय, कषाय-विजय आदि कायोत्सर्ग के माध्यम से ही संभव हैं। 196 इस प्रकार, आवश्यकनियुक्ति के गाथा क्रमांक 1432 से लेकर 1568 तक करीब 136 गाथाओं में कायोत्सर्ग का विशद-विवेचन किया गया है।
'अनुयोगद्वार' के अन्तर्गत कायोत्सर्ग को व्रण-चिकित्सा कहा गया है। 197 प्रतिपल-प्रतिक्षण सतर्कता के बावजूद भी अज्ञानवश अथवा प्रमादवश साधक की साधना में दोष या अतिचार लगने पर, या फिर भूल हो जाने पर, इन भूलों-रूपी जख्मों, घावों को भरने के लिए कायोत्सर्ग एक प्रकार का मरहम है, जो शीघ्र ही दोषरूपी घावों को ठीक कर देता है।
'आवश्यकसूत्र-तस्सउत्तरी' में कहा गया है –“मेरे द्वारा जो पाप हुए हैं, उनके विशेष शुद्धिकरण हेतु प्रायश्चित्त करने के लिए, आत्मपरिणामों की विशुद्धता के लिए, शल्यरहित करने के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूं।"198 मेरे शोधकार्य के निर्देशक डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में –"शाब्दिक-दृष्टि से कायोत्सर्ग शब्द का अर्थ होता है –'काया' का उत्सर्ग, अर्थात् देह-त्याग, लेकिन जब तक जीवन है, तब तक शरीर का त्याग तो संभव नहीं है, अतः कायोत्सर्ग का मतलब है -देह के प्रति ममत्व का त्याग, दूसरे शब्दों में, शारीरिक गतिविधियों का कर्त्ता न बनकर द्रष्टा बन जाना। वह शरीर की मात्र ऐच्छिक-गतिविधियों का नियन्त्रण है। शारीरिक गतिविधियां भी दो प्रकार की होती हैं -एक, स्वचालित और दूसरी, ऐच्छिक। कायोत्सर्ग में स्वचालित-गतिविधियों का नहीं, अपितु ऐच्छिक
195 भावे पसत्थमियरं जेण व भावेण .... । आवश्यकनियुक्ति, गाथा-1463, 196 वही, 1466, 1511, 1568, 1471 197 वण-तिगिच्छ –अनुयोगद्वारसुत्त -सुत्तागमे, पृ. 1156 198 तस्स उत्तरी-करणेणं, पायच्छित्त-करणेणं, विसोही-करणेणं, विसल्ली-करणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि काउस्सग्गं ।। - आवश्यकसूत्र, आगारसूत्र, पृ. 15
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