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लब्धियों की प्राप्ति के लिए, अतः जैनाचार्यों का यह मंतव्य रहा है कि साधक को लब्धियों के पीछे नहीं भागना चाहिए और न प्राप्त लब्धियों का प्रदर्शन या प्रयोग करना चाहिए।
जैन–परम्परा में इस सन्दर्भ में सनत्कुमार चक्रवर्ती का कथानक प्रसिद्ध है। सनत्कुमार चक्रवर्ती को अपनी साधना के बल पर अनेक प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त थीं, फिर भी उन्होंने अपने शरीर को बीमारियों से मुक्त करने के लिए उन लब्धियों का प्रयोग नहीं किया था।
जैन-परम्परा में ऐसे अनेक कथानक हैं, जो यह बताते हैं कि अनेक साधक मुनियों को अनेक प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त थीं, किन्तु उनमें से किसी ने भी प्राप्त लब्धियों का उपयोग नहीं किया। लब्धियों का उपयोग करना साधना को कौड़ियों के मोल बेच देने के समान है। जिस प्रकार अज्ञानी व्यक्ति हीरा मिलने पर भी उसे सुन्दर पत्थर समझकर अत्यल्प कीमत में बेच देता है, उसी प्रकार जो साधक लब्धियों के पीछे अपनी साधना को कौड़ियों के भाव बेच देता है, वह मूर्ख ही माना जाता है।
जैन-साधना-पद्धति का यह स्पष्ट निर्देश है कि साधक को न तो लब्धियों की प्राप्ति के लिए साधना करना चाहिए और न ही प्राप्त लब्धियों का उपयोग भी करना चाहिए।
जैन-परम्परा में लब्धियों की गौणता –
हम चाहे इसे सत्य मान लें कि साधना से विविध प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त होती हैं, किन्तु साधना का लक्ष्य लब्धियों की प्राप्ति नहीं है। जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है, जैन-परम्परा में लब्धियों को गौण माना गया है। चाहे वे साधना से उपलब्ध हों, लेकिन वे साधना का लक्ष्य नहीं होती हैं।
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