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________________ को भी लब्धि रूप ही माना गया है। इसी प्रकार, ज्ञान के साधनरूप इन्द्रिय को भी लब्धि के रूप में स्वीकार किया गया है । ' 156 इस तरह हम देखते हैं कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा दान - लाभादि पांच लब्धियाँ ही प्रारंभ में जैन दर्शन में लब्धि के रूप में मान्य रहीं, किन्तु कालान्तर में विशिष्ट प्रकार की शक्तियों को भी लब्धि के रूप मे मान लिया गया है । 157 आगमों में 'भगवतीसूत्र' में एवं 'औपपातिकसूत्र में इन दस लब्धियों के अतिरिक्त अनेक प्रकार की लब्धियों का वर्णन हुआ है । औपपातिकसूत्र का वर्णन इस प्रकार है भगवान् महावीर के शिष्यों में से कई मनोबली, कई वचनबली, एवं कई कायबली थे। कई खेलौषधि प्राप्त, कई कोष्ठबुद्धि, कई संभिन्नश्रोता और कई क्षीरास्रव-लब्धियों या ऋद्धियों से युक्त थे । इसके पश्चात्, तत्त्वार्थसूत्र के 'स्वोपज्ञभाष्य' में भी इन लब्धियों की चर्चा मिलती है। इसमें अधिकांश लब्धियाँ औपपातिक एवं पातंजल योगसूत्र के 'विभूतिपद' के आधार पर ही वर्णित है । 'स्वोपज्ञभाष्य' में इन लब्धियों का वर्णन निम्न प्रकार से हुआ है उमास्वाति ऋद्धियों के स्वरूप की चर्चा करते हुए कहते हैं कि धर्मध्यान तथा समाधि में लीन बना साधक शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों का अधिकारी बनता है और जहाँ तक परिनिर्वाण को प्राप्त न हो जाता, वहाँ तक अनेकानेक लब्धियों अथवा ऋद्धियों का स्वामी बना रहता है । ग्रन्थकार — 341 वे ऋद्धियाँ कौन-कौनसी एवं कितनी हैं, उनका स्वरूप क्या है ? इसे स्पष्ट करते हुए भाष्यकार कहते हैं – आमर्शोषधित्व, विप्रुडौषधित्व, सर्वौषधित्व, शाप और अनुग्रह की सामर्थ्य उत्पन्न करने वाली वचनसिद्धि, ईशित्व, वशित्व, अवधिज्ञान, शारीरविकरण, अंगप्राप्तिता, अणिमा, लघिमा, और महिमा आदि ऋद्धियाँ हैं । 157 अप्पेगइया मणबलिया, वयबलिया, कायबलिया । अप्पेगइया खेलोसहिपता । अप्पेगइया कोट्ठबुद्धी। अप्पेगइया संभिन्नसोया । अप्पेगइया खीरा सवा....।। Jain Education International - 156 नाणलद्धी णं भंते! कतिविहा पण्णत्ता! गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - आभिणिबोहिय नाणलद्धी जाव केवलनाणलद्धी || अण्णाणलद्वीणं भंते! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिंविहा पण्णत्ता, तं जहा मइअण्णाणलद्धी, सुयअण्णाणलद्धी, विभंगनाणलद्धी ।। - भगवतीसूत्र, 8 शतक, 2 उद्दे, 140-141 सूत्र, पृ. 48 औपपातिक - 24, सं. मुनिमधुकर, पृ. 24 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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