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इस गाथा को मुनि दुलहराज ने भी अपने ग्रन्थ में सम्मिलित तो किया, परन्तु इसे अन्यकर्तृक बताकर गाथा की संख्या मुद्रित न करते हुए इस संदर्भ को वहीं समाप्त कर दिया । 30 अभिधानराजेन्द्रकोश में इन दोनों गाथाओं को संकलित करके 'ध्यानशतक' की एक सौ पांचवीं गाथा के बाद इन गाथाओं को पुष्पिका का नाम देकर उद्धृत किया गया है । उपसंहार की दृष्टि से यह परम्परा जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के अन्य ग्रन्थ विशेषावश्यक - भाष्य में भी मिलती है । साथ-ही-साथ, मलधारी हेमचन्द्राचार्य ने भी इसकी वृत्ति में चरम की दो गाथाओं के माध्यम से ही ग्रन्थ के उपसंहार का उल्लेख किया है
प्राहूः
‘अथप्रकृतोपसंहारार्थमात्मन औद्धत्यं परिहारार्थ च श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणपूज्या
इयं परिसमापियं सामाइअ मत्थओ समासेण ।
वित्थरओ केवलिणो पुव्वविओ वा पहासंति । । 3602 । ।
सव्वाणुओगमूलं भासं समाइअस्स सोऊण । होइ परिकम्मिअमई जोग्गो सेसाणुओगस्स ।। 3603 ।। 31
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उपर्युक्त दो गाथाएं उपसंहाररूप मिलने से इस तथ्य का स्पष्टीकरण हो जाता है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा विरचित ध्यानाध्ययन (ध्यानशतक) के अन्तर्गत चरम द्वयगाथाओं को उपसंहार के रूप माना जा सकता है, किन्तु हमारे समक्ष एक समस्या यह भी है कि प्रस्तुत कृति की हरिभद्र की आवश्यकवृत्ति में भी सिर्फ एक सौ पांच गाथाओं का ही उल्लेख मिलता है। उसमें एक सौ छठवीं गाथा का उल्लेख उपलब्ध नहीं है, जिसमें इसका कर्त्ता जिनभद्रगणि को बताया गया है। इसी को आधार मानकर पण्डित बालचन्द्रजी शास्त्री ने ध्यानशतक ग्रन्थ की अपनी प्रस्तावना में इस मान्यता में सन्देह व्यक्त किया है कि इस ग्रन्थ के ग्रन्थकर्त्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण न होकर कोई और ही हैं। यदि पण्डितजी की इस बात को नजरअंदाज किए बिना यह मान्य कर लें
31 विशेषावश्यकभाष्य प् (मलधारी हेमचन्द्रकृत बृहद्वृत्ति, 3602-3603, पृ. 677
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