________________
जाता है।
गया है। 62
61
तत्त्वार्थसूत्र में धर्म और शुक्ल इन दोनों ध्यानों को मोक्ष का हेतु कहा है, इससे यह स्पष्ट होता है कि पूर्व के आर्त्त एवं रौद्रध्यान मोक्ष के नहीं, अपितु संसार - परिभ्रमण के हेतु हैं। 3 ध्यानशतक की गाथा में तो इसकी स्पष्ट व्याख्या है। 64
62
ध्यानशतक उत्तम संहनन का प्रसंग शुक्लध्यान के अन्तर्गत किया
तत्त्वार्थसूत्र में आर्त्तध्यान के प्रथम भेद का निरूपण करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि अनिष्ट पदार्थ का संयोग होने पर उससे मुक्त होने के लिए सोचना, चिन्तन करना आर्त्तध्यान का पहला भेद है। ध्यानशतक में उसे थोड़ा और स्पष्ट करते हुए कहा है अमनोज्ञ शब्दादि विषयों और उनसे संबंधित पदार्थों के वियोग-विषयक तथा आगामी काल में उनका फिर से संयोग न होना - ऐसा चिन्तन-मनन या चिन्ता, यह प्रथम आर्त्तध्यान का लक्षण है, शेष तीन आर्त्तध्यान के लक्षण भी इसी प्रकार विकसित हैं। 6
65
63
—
तत्त्वार्थसूत्र में, सर्वार्थसिद्धिसम्मत सूत्रपाठ के अन्तर्गत मनोज्ञ विषयों का असंयोग होने पर पुनः उसको कैसे प्राप्त करना - इस चिन्तन - धारा को तथा वेदनाजन्य चिन्तन-धारा को क्रमशः दूसरा एवं तीसरा आर्त्तध्यान निर्देशित किया है, 67 जबकि ध्यानशतक के अन्तर्गत शूल - रोगादि वेदनाजन्य चिन्तन - धारा को तथा इष्ट-विषयादि के संयोग की चिन्तन - धारा को क्रमशः दूसरा एवं तीसरा आर्त्तध्यान
" जं थिरमज्झवसाणं
जोगनिरोहो जिणाणुं तु।
एतेच्चिय पुव्वाणं
पराण केवलिणो । - वही. गाथा 64
तत्त्वार्थसूत्र, 9 / 29 ( परे मोक्षहेतू इति वचनात् पूर्वे आर्त्त - रौद्रे संसारहेतु इत्युक्तं भवति - सर्वार्थसिद्धि)
64
'अहं रद्दं धम्मं सुक्कं झाणाइ तत्थ अंताइं । निव्वाणसाहणाइं भवकारणमट्ट-रूद्वाइं - ध्यानशतक, गाथा5
65 क) तत्त्वार्थसूत्र 9 / 30
ख) अमणुण्णाणं.
। - ध्यानशतक, गाथा 6
“ क) आर्त्तममनोज्ञाना.......वेदनायाश्च । विपरीतं मनोज्ञांनाम् । निदानं च - तत्त्वार्थसूत्र, 9/31,32,33,34,
ख) तह सूल - सीस..... । ध्यानशतक 7-9
67 विपरीत मनोज्ञस्य । वेदनायाश्च ।
Jain Education International
321
ध्यानशतक, गाथा 2-3
तत्त्वार्थसूत्र- 9/31-32
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org