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________________ 319 भगवतीसूत्र में धर्मध्यान के चार लक्षणों में तीसरा 'सूत्ररुचि' और चौथा 'अवगाढ़रुचि' 51 है, वहाँ औपपातिकसूत्र में तीसरा 'उपदेशरुचि' और चौथा 'अवगाढ़रुचि' –इस प्रकार क्रम भेद मिलता है। ध्यानशतक के अन्तर्गत भी दूसरा लक्षण उपदेशश्रद्धान कहा गया है। 3. स्थानांगसूत्र और भगवतीसूत्र में धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाओं का क्रम जहां प्रथमतः एकत्वानुप्रेक्षा है, वहां औपपातिकसूत्र में इसका क्रम अलग है। एकत्वानुप्रेक्षा का स्थान तीसरा एवं अनित्यानुप्रेक्षा का स्थान प्रथम है। 55 ध्यानशतक के अन्तर्गत 'अनित्यादिभावना' का संकेत तो अवश्य है, परन्तु संख्या की क्रमता या सूचना वहाँ उपलब्ध नहीं है। 4. शुक्लध्यान के चारों प्रकारों में सूक्ष्मक्रिया-निवृत्ति और समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती क्रमशः तीसरा और चौथा प्रकार है - यह क्रम स्थानांग और भगवतीसूत्र में पाया जाता है, जबकि औपपातिकसूत्र में अनिवृत्ति और अप्रतिपाती में क्रमव्यत्यय होकर वे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती तीसरा प्रकार और समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति, चौथा प्रकार के रूप में निर्दिष्ट हुए हैं। इस तरह, औपपातिकसूत्र में शुक्लध्यान के लक्षणों, आलम्बनों और अनुप्रेक्षाओं में थोड़ा-सा शब्द तथा क्रम में भेद पाया जाता है। इस प्रकार, ध्यानशतक तथा उपर्युक्त आगमग्रन्थों की समानता और असमानता की तुलना का वर्णन समाप्त होता है। 51 धम्मस्सण झा.च.ल.प. तं जहा-आणारूयी, निसग्गरूयी, सुत्तरूयी, ओगाढ़रूयी। -भ.सू, श.25, उद्दे 7, सू. 606 52 धम्मस्सण झा.च.ल.प. तं जहा- आणारूई, णिसग्गरूई, उवएसरूई, सुत्तरूई। - औपपातिक, सूत्र30, पृ.50 53 आगम-उवएसाऽऽणा-णिसग्गओ...... | – ध्यानशतक, गाथा 67 54 धम्म.झा.च.अणुप्पेहाओ, पण्णत्ताओ, तं जहा-एगताणुप्पेहा, अणिच्चाणुप्पेहा, असरणाणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा - भगवतीसूत्र, श.25, उद्दे.7, सू. 608, पृ. 974 5 धम्म.झा.च.अणुप्पेहाओ, पण्णत्ताओ तं जहा.-अणिच्चाणुहा, असरणाणुप्पेहा, एगत्ताणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा - औपपातिक, 30 56 णिच्चमणिच्चाइभावणापरमो.... | – ध्यानशतक, गाथा 65 57 सुक्के झाणे चउव्हेि चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहा- पुहत्तेवितक्केसवियारी, एगत्तवितक्के अवियारी, सुहमकिरिए अणियट्टी, समोछिण्णकिरिए अप्पडिवायी। - भगवतीसूत्र, प्र.लाडनूं, सं. महाप्रज्ञ, 25श, 7उद्दे, 609सू. 974 पृ. 58 सुक्कज्झाणे चउविहे चउप्पडोयारे पण्णते तं जहा – पुहुत्तवियक्के सवियारी, एगत्तवियक्के अवियारी, सुहुमकिरिए अपडिवाई, समुच्छिन्नकिरिए अणियट्ठी।। औपपातिक, सं.-मुनि मधुकर, सूत्र 30, पृ. 50 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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