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________________ द्वारा इन्हें प्रस्तुत किया गया है। अन्तिम गाथा क्रमांक एक सौ तीन से लेकर एक सौ पांच तक में कहा गया है कि ध्यान के माध्यम से मानसिक अर्थात् क्रोध, मान, माया, ईर्ष्या एवं शोकादिजन्य दुःखों का तथा शारीरिक-पीड़ा (अल्सर, रक्तचाप, हृदयाघात आदि) के दुःख का अभाव होता है। अन्त में, ग्रन्थकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए ग्रन्थ के महत्त्व तथा ग्रन्थ-प्रमाण का निर्देश करते हुए कहते हैं कि ध्यान समस्त गुणों का आधार-स्तम्भ है, इहलौकिक और परलौकिक सुखों का भण्डार है, अत्यन्त विशुद्ध है और सदैव ही श्रद्धेय, ज्ञातव्य, धातव्य एवं प्राप्तव्य है। इस प्रकार, ग्रन्थ के अन्तर्गत, ध्यान क्या है ? ध्यान का स्वरूप क्या है ? उसके मूल प्रकार कितने हैं ? उन प्रकारों के भेद, प्रभेद कितने हैं ? उनके लक्षण, आलम्बन एवं ध्येय क्या हैं ? इन सबकी चर्चा भी की गई है। तत्पश्चात्, ध्याता की मनोवृत्तियां, भिन्न-भिन्न ध्यानों के स्वामी का प्रसंग, ध्यान-योग्य स्थान, समय, आसन तथा मुद्रा आदि तथ्यों का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है। उपर्युक्त विवरण में ध्यान के भेद, प्रभेद, लक्षण और आलम्बन आदि की चर्चा तो स्थानांगसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र को माध्यम मानकर हुई है, किन्तु ध्यान के काल, आसन, मुद्रा आदि की चर्चा इसकी अपनी स्वतन्त्र देन है (अथवा चर्चा है), जिसका अनुकरण परवर्ती ग्रन्थों में किया गया है, जैसे- योगशास्त्र, ज्ञानार्णव, आदिपुराण आदि। मूल ग्रन्थकार का परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ के रचनाकार को लेकर वर्तमानकाल में भिन्न-भिन्न विद्वानों की भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं। भिन्न-भिन्न मान्यताएं तो विद्वानों की मति-भेद का ही फल है, लेकिन प्रमाणों के आधार पर देखा जाए, तो यह स्पष्ट है कि ध्यानाध्ययन अपरनाम ध्यानशतक ग्रन्थ के रचयिता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ही विख्यात हैं। ___ 'बृहद् जैन-साहित्य का इतिहास', भाग- 4 (पृष्ठ संख्या 250) में यह निर्देश मिलता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में 106 गाथाएं हैं। इसकी अन्तिम गाथा में यह स्पष्ट रूप 23 संवर-विणिज्जराओ मोक्खस्स ............. कम्मघणा विलिज्जति।। - ध्यानशतक, गाथा 96-102. 24 नकसाय समुत्थेहि..... ...........तेयं च निच्चपि।। - ध्यानशतक, गाथा 103-105. 25 जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग - 4, पृ. 250. (क) डिस्क्रिप्टिव केटेलाग ऑफ द गवर्नमेण्ट कलेक्शन ऑफ मैनस्क्रिप्ट्स (वॉल्यूम ग्टप्पए भाग प, पृ. 415-416) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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