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'स्वाध्यायसूत्रानुसार, साधक एकाग्रगामिनी चिंतन - धारा से सोचता हैजिस पृथ्वी पर मैं रहता हूँ, वह मध्यलोक है। एक रज्जु परिमितियुक्त क्षीरसागर में जम्बूद्वीप के समान लाख योजन विस्तीर्ण हजार पत्रों वाला कमल, ज्योतियुक्त उज्ज्वल सिंहासन है, उस पर समासीन होकर कर्मों का मूलोच्छेदन करने में समुद्यत हूँ। यह चिंतन-पद्धति पार्थिवी - धारणा है । "
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यह इस पृथ्वी अर्थात् धरती को आधार - रूप मानकर की गई धारणा है । यह चिन्तनानुचिन्तन प्रक्रिया साधक के ध्यान को अन्य पदार्थों से विमुख कर मात्र एक ही पिण्डस्थ - कल्पित वस्तु अथवा पदार्थ पर स्थिर करती है। यह एकाग्रता की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है ।
2. आग्नेयी - धारणा
इस धारणा में साधक थोड़ा आगे बढ़कर एक अन्य विधा की परिकल्पना करता है। उसकी चिन्तन - धारा में एक सोलह पंखुड़ियों वाला कमल नाभि के अन्दर विद्यमान है और उसकी एक-एक पंखुड़ियों पर क्रमशः 'अ-आ-इ-ई-उ-ऊ -ऋ-ऋलृ-लृ-ए-ऐ-ओ-औ-अं-अः' ये सोलह स्वर स्थापित हैं। तत्पश्चात् रेफ, बिन्दु और कला सहित महामंत्र 'अ ' अक्षर है। 'अहं' के रेफ से शनैः-शनैः धूमशिखा निकल रही है, फिर चिनगारियों का निकलना, आग की प्रज्वलता का चिन्तन करना, स्थिर अध्यवसायों द्वारा ऐसा अहसास करना कि हृदय - स्थल पर आठ पंखुड़ियों सहित एक कमल स्थित है, जो अष्टकर्मों का प्रतीक रूप है। वह उस अग्नि से जलकर भस्म हो गया है अग्निज्वालाएं शान्त हो गई हैं - ऐसा
चिन्तन-मनन आग्नेयी - धारणा में होता है। 198
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197 पार्थिव्या
11 स्वाध्यायसूत्र, अध्याय - 10, सूत्र - 12, पृ. 265
198 क ) विचिन्तयेत्तथा नाभी कमलं षोडशच्छद्म । कर्णिकायां महामन्त्रं प्रतिपत्र स्वरावलीम् ।। .. स्यादाग्नेयीति धारणा ।। - योगशास्त्र, श्लो. 13-18, पृ. 7 ख) ततोऽसौ निश्चलाभ्यासात् कमलं नाभिमण्डले । स्मरत्यति मनोहारि षोडशोन्नतपत्रकम् । । प्रतिपत्रसमासीन... .. शान्तिं याति वह्नि शनैः-शनैः । । ज्ञानार्णव, सर्ग - 34, श्लो. 10-19
रेफबिन्दुकलाक्रान्तं ....
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