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________________ 281 आध्यात्मिक-विकास की इस भूमिका में अवस्थित साधक को जैनदर्शन में अरिहंत या केवली कहा जाता है, जबकि वेदान्त-दर्शन में इस भूमिका वाले व्यक्ति को जीवन-मुक्ति अथवा सदेह-मुक्ति कहते हैं। सयोगीकेवली त्रिकालज्ञाता होते हैं। भूत-भविष्य-वर्तमान की सभी वस्तुओं, पदार्थों से वे अनभिज्ञ नहीं रहते हैं। 103 इस सन्दर्भ में विशेषावश्यकभाष्य में भी इसी बात का समर्थन मिलता है। 104 केवलीसमुद्घात की प्रक्रिया भी इसी गुणस्थान में होती है, परन्तु वह तब होती है, जब चारों अघातीकर्मों की स्थिति समान न हो।105 सूक्ष्म मन-वचन-काययोग का निरोध करके सर्वज्ञ अन्तिम अध्यात्म-विकास के मार्ग पर अग्रसर होते हैं। इस अवस्था में शुक्लध्यान के प्रथम दो चरण होते हैं। 14. अयोगीकेवली-गुणस्थान - आध्यात्मिक विकास की इस भूमिका में साधक को आध्यात्मिक-पूर्णता की उपलब्धि हो जाती है, लेकिन आध्यात्मिक-विकास की पराकाष्ठा पर पहुंचने के लिए सूक्ष्म काययोग का निरोध अनिवार्य है। जो सर्वज्ञ योगों से रहित होते हैं और शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण में स्थित हैं, वे अयोगीकेवली कहलाते हैं। 106 यह चारित्र-विकास या आध्यात्म-विकास की चरमावस्था है। प्रशमरतिप्रकरण 107 और योगशास्त्र 108 में यह कहा गया है कि इस गुणस्थान के अन्तर्गत अ, इ, उ, ऋ, लु –इन पाँच हस्व स्वरों या पाँच व्यंजनों के 103 कर्मगन्थ (भा.-6) टीका आचार्य मलयगिरि, उद्धृत- अभिधानराजेन्द्रकोश भाग-3, खवगसेढ़ी, पृ.-129-31 104 संभिन्नं पासंतो लोगमलोगं च सत्वओ सव्वं । तं नत्थि जं न पासइ भूयं भव्वं भविस्सं च।। - विशेषावश्यकभाष्य, गा. 1342 105 प्रज्ञापना, पत्र-601/1 106 प्रदाह्य घातिकर्माणि शुक्लध्यान कृशानुना। अयोगो याति शैलेशो मोक्षलक्ष्मी निरास्रव ।। - संस्कृत पंचसंग्रह, 1/50 107 ईषदहस्वाक्षरपंचकोग्दिरणमात्रतुल्यकालीयाम्।। संयमवीर्याप्तबलः शैलेशीमेति गतलेश्यः।। - प्रशमरतिप्रकरण, श्लो. 284 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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