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दमन किया गया है, तो वह आत्मा उपशमश्रेणी की ओर विकास करता हुआ सीधा बारहवें गुणस्थान को स्पर्श कर लेता है।
दूसरे शब्दों में, जिस अवस्था के अन्तर्गत कषाय उपशान्त हो गई, सूक्ष्म रागादि का सर्वथा अनुदय है, किन्तु सत्ता में स्थित हैं, वह जीव उपशान्तकषायवीतराग--छद्मस्थ-गुणस्थान वाला कहा जाता है।99
इस गुणस्थान वाला साधक अन्तर्मुहूर्त के अन्दर अवश्यमेव पतित होता है। यदि इस काल-परिमाण के मध्य वह मृत्यु को प्राप्त हो जाए, तो अनुत्तरविमान में देव- अवस्था को प्राप्त होता है और यदि मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है, तो पतन होना शुरू होता है, अर्थात् पुनः क्रमशः नीचे के गुणस्थानों में सातवें, चौथे या प्रथम गुणस्थान तक आ पहुंचता है। सातवें गुणस्थान में स्थित रहकर या चौथे गुणस्थान में रहकर वह पुनः क्षपकश्रेणी प्रारम्भ करके आगे बढ़ जाता है। यह गुणस्थान अति अल्पकालीन होने से इसमें ध्यान की स्थिति पूर्ववत् ही होती है।
12. क्षीणमोह-गुणस्थान -
उपशमश्रेणी से आगे बढ़ा हुआ साधक ग्यारहवें गुणस्थान तक आकर पुनः पतन अर्थात् नीचे के गुणस्थान में पहुंच जाता है, लेकिन जो साधक क्षपकश्रेणी से आगे बढ़ता है, तो वह मोहनीय-कर्म की सभी कर्मप्रकृतियों का क्षय होते ही, यहाँ तक कि उनका सत्ता में भी अभाव होता है, वह क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है। यहाँ से साधक अवश्यमेव मोक्षगामी होता है। - दूसरे शब्दों में, इस अवस्था में जीव आध्यात्मिक-विकास की अग्रिम भूमिकाओं का अधिकारी बनता है तथा उसके पुन: पतन की अवस्था का अभाव होता है।
* सटीकाश्चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तव), पृ. 4-5
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