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________________ 265 दिगम्बराचार्यों की टीकाओं के अन्तर्गत सविस्तार गुणस्थान-सिद्धान्त का उल्लेख मिलता है। षट्खण्डागम के अतिरिक्त शेष सभी ग्रन्थों में इसे गुणस्थान के नाम से अभिहित किया गया है। हमने भी यह सभी विवेचन डॉ. सागरमल जैन के ग्रन्थ 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण के आधार पर किया है। गुणस्थान शब्द की परिभाषा - ___ 'प्रवचनसारोद्धार की टीका' के अन्तर्गत लिखा है कि गुणों के विकास या हास रूप आत्मा की जो शुद्धावस्था या अशुद्धावस्था होती है, वह गुणस्थान कहलाती है। 'कर्मग्रन्थ की टीका' के अनुसार, परमसाध्य की प्राप्ति तक आत्मा को एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी -ऐसी क्रमिक अनेक अवस्थाओं को पार करना पड़ता है। इन्हीं अवस्थाओं की श्रेणी को विकास-क्रम या उत्क्रान्ति-मार्ग कहते हैं और जैनशास्त्रीय-परिभाषा में उसे गुणस्थान कहते हैं।” अमितगतिकृत दिगम्बर–संस्कृत 'पंचसंग्रह' में लिखा है कि औदयिक आदि भावों के आधार पर गुण-अवगुण-रूप से जीवों की जिन विभिन्न अवस्थाओं का बोध होता है, वे गुणस्थान कहलाती हैं। 58 'गोम्मटसार' में गुणस्थान की उत्पत्ति के कारण को निर्दिष्ट करते हुए लिखा है कि मोहनीयकर्म के माध्यम से तीनों योगों में अर्थात् मन, वचन और काया में जो प्रवृत्ति होती है, उसी से गुणस्थानों का उद्भव होता है। मूलाचार में भी इसी बात की पुष्टि मिलती है।60 6 प्रवचनसारोद्धार, सटीक, 224 वां द्वार, गाथा 1302, पृ. 464 57 कर्मविपाक अर्थात् कर्मग्रन्थ, भाग 1-2-3, अनु. सुखलाल संघवी, प्रस्तावना पृ. xxxix 58 दिगम्बर संस्कृत पंचसंग्रह, गाथा 12 59 गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा-9 60 मूलाचार, गाथा-29 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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