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________________ 264 सदैव सर्वथा आनंद-ही-आनंद होता है। 45 आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ऋषि -भाषित, भगवती आदि आगमों में गुणस्थान का कोई वर्णन नहीं है। सर्वप्रथम समवायांग में गुणस्थान की तरह जीवस्थान का उल्लेख मिलता है। 'आवश्यकनियुक्ति' में भी इसका वर्णन मिलता है, लेकिन उन अवस्थाओं का नामोल्लेख करते हुए भी उन्हें गुणस्थान नहीं कहा है। श्वेताम्बर--परम्परा के अनुसार सबसे पहले 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग हमें आवश्यकचूर्णि (सातवीं शताब्दी) में करीब तीन पृष्ठों गुणस्थानों का विवेचन देखने को मिलता है, साथ ही तत्त्वार्थ-भाष्य की वृत्ति, हरिभद्रीय तत्त्वार्थसूत्र की टीका में भी गुणस्थान के नाम से विवेचन किया गया है। दिगम्बर–परम्परा के अनुसार, कषायपाहुड के सिवाय षट्खण्डागम मूलाचार", भगवती-आराधना", समयसार आदि ग्रन्थों के साथ ही तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि 3 राजवार्त्तिक 54 श्लोकवार्तिक 55 आदि 45 वही 46 मिच्छादिट्ठी सासायणे य तह सम्ममिच्छादिट्ठीय...अजोगीय।। -नियुक्तिसंग्रह (आवश्यकनियुक्ति)पृ.149 47 तत्थ इमातिं चोद्दस गुणट्ठाणाणि.....अजोगिकेवली नाम सलेसी पाडिवन्नओ सो य तीहिं जोगेहिं विरहितो जाव कखगघड. इच्चेताइं पंचहस्सक्खराइं उच्चरिज्जति एवतियं कालमजोगिकेवली भावितूण तोहे सव्वकम्मविणिमुक्को सिद्ध भवति। ___ -आवश्यकचूर्णि, जिनदासगणि, उत्तरभाग, पृ.133-136 48 एतस्य त्रयः स्वामिनश्चतुर्थ-पंचम षष्ठ गुणस्थानवर्तिन..... || तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (सिद्धसेनगणि कृत भाष्यानुसारिणिका समलड्.कृत टीका, 9-35 श्री तत्त्वार्थसूत्रम् (टीका-हरिभद्र), पृ. 465-466 एदेसि चेव चोद्दसण्हं जीवसमासाण परूवणट्ठदाए तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्वाराणि णायव्वाणि, भवंति मिच्छादिद्रि.........सजोगकेवली अजोगकेवली सिद्धा चेदि।। -षडखण्डागम पृ.11154-201 मिच्छादिट्ठी सासादणो य मिस्सा असंजदो चेव। देस विरदो पमतो अपमत्तो तह य णायव्वो। एत्तो अपुव्वकरणो अणियट्टी सुहुमसंपराओ य। उवसंतखीणमोहो सजोगि केवलि जिणे अजोगी य।। सुरणारयेसु चत्तारि होंति तिरियेसु जाण पंचेव। मणुसगदीएवि तहा चोद्दसगुणणाममधेयाणि ।। ___-मूलाचार (पर्याप्त्यधिकार), पृ. 273–279 अध खवयसेढिमधिगम्म कुणइ साधू अपुव्वकरणं सो। होइ तमपुव्वकरणं कयाइ अप्पत्तपुव्वंति।। अणिवित्तिकरणणामं णवमं गुणठाणयं च अधिगम्म। णिद्दाणिद्दा पयलापयला तध थीणगिद्धिं च।। - भगवती–आराधना, भाग-2, पृ. 890, विशेष गा. 2072 से 2126 सर्वार्थसिद्धि, सूत्र 1-8 की टीका, पृ. 30-40 तथा 9-12 की टीका राजवार्त्तिक (भट्ट अकलंक) 9-10/22, पृ. 488 तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् गुणस्थानापेक्ष....10-3 गुणस्थानभेदेन.... ...36–4, पृ. 403 अपूर्णकरणादीनां। विशेष विवरण हेतु 9..33..44 तक की संपूर्ण व्याख्या 52 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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