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________________ 252 जैनदर्शन में योग शब्द का प्रयोग आस्रव के अर्थ में भी हुआ है,987 साथ ही यह भी जाना है कि अशुभ पाप-कर्मों का प्रक्षालन ध्यान जैसे प्रशस्त-योग द्वारा ही सम्भव है।888 जैनागमों में मन-वचन और काया की प्रवृत्ति के अर्थ में भी योग शब्द का प्रयोग हुआ है।889 पातंजल योगसूत्र290 में कहा गया है कि योगश्चित्तस्य चित्तवृत्तिः निरोधः । जैन-परम्परा में भी ध्यान-साधना का लक्ष्य मन को अमन बनाना है, या मनोयोग का निरोध ही है। ध्यान में जब तक आलम्बन रहता है, तब तक चित्तवृत्ति चाहे एकाग्र हो, किन्तु वह निर्विकल्प नहीं होती है। साधना के क्षेत्र में चित्त जब आलम्बन से ऊपर उठ जाता है, तब चित्त या मन निर्विषय हो जाता है और निर्विषय मन वस्तुतः मन न रहकर अमन हो जाता है। योगनिरोध, चित्तवृत्ति का निरोध या मन का निरोध- यह निरालम्बन-दशा में ही सम्भव है। जब तक आलम्बन है, तब तक चित्तवृत्ति निर्विषय नहीं होती है और ऐसी स्थिति में चित्त या मन जीवित बना रहता है। ध्यान-साधना का लक्ष्य तो मन से परे ज्ञाता-दृष्टा भाव में अवस्थिति है। ज्ञाता-दृष्टा होने के लिए किसी आलम्बन की अपेक्षा नहीं होती है। निरालम्बन निर्विकल्प और निर्विषय आत्मसत्ता की अनुभूति ही ध्यान-साधना का अन्तिम लक्ष्य है, अतः ध्यान-साधना में प्राथमिक स्तरों पर आलम्बन की अपेक्षा होती है, किन्तु अन्त में आलम्बन का परित्याग करके निरालम्बन की दशा में चेतना की स्थिति ही ध्यान-साधना की सार्थकता है। जिस प्रकार एक बालक को प्राथमिक स्तर पर स्वर और व्यंजनों का बोध कराने के लिए यह सिखाया जाता है कि 'अ' अनार का, 'आ' आम का आदि, किन्तु यदि बालक जीवनभर यही करता रहे, तो शिक्षा के क्षेत्र में उसकी प्रगति सम्भव नहीं है, उसी 887 तत्त्वार्थसूत्र- 6/12. 888 आवश्यक निर्यक्ति , भाग-2, गाथा- 1232 एवं 1250, पृ. 50. 889 (क) झाणजोगं समाहट्ट कायं वोसेज्ज सव्वसो। – सूत्रकृतांग- 1/8/27. (ख) इह जीवियं अणियमित्ता पब्भट्ठा समाहिजोगेहिं। - उत्तराध्ययन-8/14. (ग) तवं चिमं संजमजोगयं च सज्झायजोगं च सया अहिट्ठए। - दशवैकालिक-8/161. 890 चित्तवृत्तिनिरोधयोगः । – योगशास्त्र- 1/2. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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