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स्थानांगसूत्र में लोभ को आमिषावर्त कहते हैं। जिस प्रकार गिद्धादि पक्षी मांस पाने के लिए इधर-उधर भटकते हैं, उसी प्रकार लोभी व्यक्ति पर-पदार्थों या इष्ट-पदार्थों को पाने के लिए इधर-उधर भटकता है।853
दशवैकालिक में कहा है कि लोभवृत्ति सर्वनाश कर डालती है।854
प्रशमरतिप्रकरण में वर्णन मिलता है कि सर्व विनाशों का मुख्य आधार लोभ है, यह सभी व्यसनों का मुख्य पथ है।855
योगशास्त्र में कहा गया है कि लोभ-कषाय समस्त दोषों की खान है, सर्वगुणों का घातक, दुःख का कारण एवं धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप पुरुषार्थों का घातक है, अतः लोभ दुर्जेय है।856
ज्ञानार्णव में लिखा है कि पाप का बाप लोभ है, जो सभी अनर्थों का मूल है।857
धर्मामृत (अनगार) में बताया गया है कि लोभग्रस्त व्यक्ति अपने स्वामी, गुरु, कुटुम्बजन, असहायों को भी निस्संकोच मरणान्त कष्ट तक भी देने में पीछे नहीं रहता। ऐसा व्यक्ति अपनी इच्छापूर्ति के लिए रिश्ते-नाते तक तोड़ देता है।858
__ जब तक व्यक्ति इस कषाय से पीड़ित नहीं होता है, तब तक ही मित्रता निभाता है, अपने आश्रित रहने वालों की सार-सम्भाल में ध्यान देता है और जैसे ही लोभवृत्ति उत्पन्न होती है, वह सब-कुछ भूल जाता है, मात्र स्वार्थपूर्ति में दिन-रात संलग्न रहता
मोक्षमार्ग-प्रकाशक में लिखा है- पांचों इन्द्रियों के विषय एवं मान-कषाय की पूर्ति की लालसा भी लोभ ही है।859
चिन्तामणि में लोभ के दो उग्र लक्षण बताए हैं- 1. असन्तोष 2. अन्य वृत्तियों का दमन।880 जैसे-जैसे लाभ बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे लोभवृत्ति भी बढ़ती जाती है।881
85 आमिसावतसमाणो लोभे।। - स्थानांगसूत्र- 4/4/653. 854 लोहो सव्व विणासइ ............. || - दशवैकालिक- 8/38. 855 सर्वविनाशाश्रयिणः सर्वव्यसनैकराजमार्गस्य।
लोभस्य को मुखगतः क्षणमपि दुःखांतरमुपेयात्।। - प्रशमरतिप्रकरण- 29. 856 आकरः सर्वदोषाणां गुणग्रसनराक्षसः ............. || - योगशास्त्र, प्रकरण- 4, गाथा- 18. 857 स्वामिगुरूबन्धुवृद्धान ......... ।। - ज्ञानार्णव, सर्ग- 19, श्लोक- 70. 858 तावत्कीत्य ........... || - धर्मामृत, अध्याय-6, गाथा- 27. 859 मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृ. 53.
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