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योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है कि क्रोध शरीर और मन को कष्ट देता है, बैर से क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध दुर्गति का मार्ग है, क्रोध नोक्ष - सुख में अर्गला के समान है। 801
धर्मामृत (अनगार)
इसके अनुसार, क्रोध एक विशेष अग्नि है, क्योंकि सामान्य अग्नि तो मात्र शरीर का दहन करती है, परन्तु क्रोध, देह और मन दोनों को भस्मीभूत कर देता है। क्रोध आने पर व्यक्ति अविवेकी बन जाता है और उस स्थिति में वह अनर्थ कर डालता है। 802
ज्ञानार्णव 03 में क्रोध से होने वाली हानियों एवं परिणाम का वर्णन इस प्रकार वर्णित है कि क्रोध में सर्वप्रथम स्वयं का चित्त अशान्त होता है, विद्वेष के भावों में तीव्रता आ जाती है, विवेकरूपी दीपक बुझ जाता है । क्रोधी दूसरे को अशान्त कर पाए या नहीं, पर स्वयं तो जलता ही है, जैसे दिया - सलाई दूसरे को जलाए या नहीं, स्वयं तो जल ही जाती है
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गीता के अन्तर्गत श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि अपने निजस्वरूप का घात करने वाले क्रोध और लोभ नरक के द्वार हैं। क्रोधवृत्ति से मूढ़ता, मूढ़ता से ग्राह्यशक्ति का हास, स्मृति के ह्रास से विवेक नष्ट और विवेक तथा बुद्धि के नष्ट होने पर सर्वनाश होता है। 805
क्रोध पर आधारित विवेचना में बौद्धग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में क्रोधी व्यक्ति को सर्प के समान माना है 1806
इतिवृत्तक में बुद्ध ने कहा है कि क्रोध से युक्त व्यक्ति दुर्गति को प्राप्त होता है, क्रोध के त्याग से संसार - भ्रमण समाप्त होता है, अतः जड़ से ही क्रोध को खत्म कर
दो 1807
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क्रोध के अभाव में व्यक्ति के भीतर क्षमावृत्ति का आविर्भाव होगा और क्षमावृत्ति से समस्त जीवों पर मैत्रीभाव का सर्जन होगा ।
802 धर्मामृत अनगार, अध्याय - 6, श्लोक - 4.
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ज्ञानार्णव- 18 / 38 से 77 तक ( क्रोध तथा निवारणार्थ चर्चा )
प्रस्तुत सन्दर्भ, 'कषाय', साध्वी हेमप्रज्ञाश्री से उद्धृत, पृ. 15.
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805 गीता, अध्याय - 2, श्लोक - 63.
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अंगुत्तरनिकाय, द्वितीय भाग, पृ. 108-109.
इतिवृत्तक, निपात- 1, वर्ग- 1, पृ. 02.
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