SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर जदा, तदा जैसे रूप भी मिलते हैं। इसी प्रकार, इसमें अर्द्धमागधी या मागधी के दन्त्य (न) पर प्रायः 'ण' का ही प्रयोग अधिक हुआ है। यद्यपि अनेक स्थानों पर दन्त्य 'न' बना हुआ भी है, किन्तु 'न' के स्थान पर 'ण' का प्रयोग सम्पादन के समय किया गया है या मूलग्रन्थ में ही था, यह अब भी एक विचारणीय प्रश्न है। इस ग्रन्थ की गाथा क्रमांक 89 में 'ततियं' रूप मिला है, जो स्पष्टतया महाराष्ट्री-प्राकृत का रूप नहीं हो सकता, क्योंकि महाराष्ट्री का होने पर तो 'तइयं रूप होना चाहिए था', इसलिए इसकी भाषा के सन्दर्भ में हम इतना ही कह सकते हैं कि मूलतः यह महाराष्ट्री-प्राकृत-प्रधान अर्द्धमागधी ही है, जो प्रायः श्वेताम्बर-आगमों की भाषा से समरूपता रखती है। इसकी भाषा-शैली को लेकर पण्डित दलसुखभाई मालवणिया का मानना है कि प्रस्तुत ग्रन्थ की शैली एवं भाषा नियुक्ति की शैली एवं भाषा से निकटता रखती है, किन्तु इस सन्दर्भ में डॉ. सागरमल जैन का यह कहना है कि इसे नियुक्तिकार की रचना मानने में अनेक कठिनाइयां हैं। प्रथमतः, आवश्यकनियुक्ति की जो गाथाएं हैं, उनसे ध्यानाध्ययन की एक भी गाथा नहीं मिलती है। यदि दलसुखभाई के अनुसार दोनों कृतियां एक ही लेखक की होती, तो कहीं-न-कहीं उनमें कुछ समानता तो अवश्य ही मिलती, अतः डॉ. सागरमल जैन के अनुसार, वस्तुतः यह ग्रन्थ नियुक्ति के बाद का और जिनदासगणि महत्तर की चूर्णियों के पूर्व भाष्यकाल की रचना है, अतः इसके कर्त्ता विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ही होने चाहिए। इसकी, अर्थात् ध्यानशतक की भाषा नियुक्ति की भाषा की अपेक्षा भाष्य की भाषा के अधिक निकट है, क्योंकि भाष्यों की भाषा में नियुक्तियों की अपेक्षा महाराष्ट्री-प्राकृत का प्रभाव अधिक देखा जाता है। ग्रन्थ की विषय-वस्तु - ध्यान की प्ररूपणा में प्रवृत्त होकर ग्रन्थकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रारम्भ करते समय सबसे पहले, यह ग्रन्थ निर्विघ्नतापूर्वक समाप्त हो- इस उद्देश्य से प्रथम श्लोक में मंगल कामना करते हुए भगवान् महावीर को नमस्कार कर द्वितीय श्लोक में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा सुक्काए लेसाए दो ततियं परमसुक्कलेस्साए। थिरयाजियसेलेसं लेसाईयं परमसुक्कं।। - ध्यानशतक, गाथा - 89 8 जैनधर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग - 7, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 43 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy