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________________ अतः दोनों नाम की भिन्नता के बावजूद भी ग्रन्थ की विषय-वस्तु में किसी भी प्रकार की कोई भिन्नता नजर नहीं आती है। ग्रन्थ की भाषा -जहाँ तक 'ध्यानशतक' की भाषा का प्रश्न है, इस सन्दर्भ में यह स्पष्ट है कि वह शौरसेनी या जैन-शौरसेनी नहीं मानी जा सकती है, क्योंकि सम्पूर्ण ग्रन्थ में हमें किसी भी स्थान पर मध्यवर्ती 'त' का 'द' नहीं मिला है जो शौरसेनी का मुख्य लक्षण है। यहां यह ज्ञातव्य है कि इसकी जो गाथाएँ धवला-टीका में मिली हैं, उनमें मध्यवर्ती 'त' के स्थान पर 'द' पाया जाता है। अतः ग्रन्थ की भाषा को कहीं-न-कहीं अर्द्धमागधी और महाराष्ट्री के रूप में ही देखना होगा। यदि हम इन समग्र गाथाओं का विश्लेषण करें, तो हमें स्पष्ट रूप से यह प्रतीत होता है कि उसकी भाषा विशुद्ध अर्द्धमागधी न होकर कहीं-न-कहीं महाराष्ट्री प्रभावित अर्द्धमागधी ही कही जा सकती है, क्योंकि मूलग्रन्थ में अनेक स्थानों पर मध्यवर्ती व्यंजनों यथा क, ग, च, ज, त, द आदि के लोप की प्रवृत्ति देखी जाती है, जबकि मागधी तथा अर्द्धमागधी में यह लोप की प्रवृत्ति प्रायः अल्प ही पाई जाती है, जैसे- क्रियारूपों में इस ग्रन्थ में होइ, झाइ, रज्जइ, वहइ, उव्वेइ, पुव्वइ, समेइ आदि रूप ही मिलते हैं जो मुख्य रूप से महाराष्ट्री-प्राकृत के लक्षण माने जाते हैं, किन्तु ग्रन्थ की यह महाराष्ट्री-प्राकृत अर्द्धमागधी से प्रभावित है, क्योंकि कहीं-कहीं महाराष्ट्री क, ग आदि के लोप की प्रवृत्ति का अभाव भी इसमें मिलता है, जैसे- गाथा क्रमांक 64 में 'सजोगाजोगा' में 'ग' लोप नहीं है। इसी तरह गाथा क्रमांक 65 ‘सुभावियचित्तो" में जहां मध्यवर्ती 'त' का लोप होकर उसकी जगह 'य' श्रुति हुई है, वहीं 'भ' के स्थान पर 'ह' नहीं हुआ है। इसी प्रकार, इसमें जहां, तहां आदि ऐसे रूप भी देखने को मिलते हैं, जो अर्द्धमागधी के न होकर महाराष्ट्री-प्राकृत के ही लक्षण कहे जाते हैं, क्योंकि अर्द्धमागधी में इनके स्थान ' एएच्चिय पुव्वाणं पुव्वधरा सुप्पसत्थसंघयणा। दोण्ह सजोगाजोगा सुक्काण पराण केवलिणो।। - ध्यानशतक, गाथा - 65 झाणोवरमेऽवि मुणी णिच्चमणिच्चाइचिंतणापरमो। होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणेण जो पुव्विं ।। - ध्यानशतक, गाथा - 66 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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