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________________ 225 चूर्णिकार ने प्रतिसंज्वलन के लक्षण का निरूपण करते हुए कहा है कि जो रोष-अवस्था में कम्पित होता है, आग के समान धधकने लगता है, रोषाग्नि प्रज्ज्वलित कर देता है, जो आक्रोश के बदले आक्रोश एवं घात के बदले प्रतिघात करता है, वही प्रतिसंज्वलन है। ध्यानशतक में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि हिंसादि क्रिया अभी आचरित नहीं हुई, झूठे वचन अभी तक बोले नहीं, चोरी अभी की नहीं, दूसरों को ताड़ना-तर्जना की नहीं, मात्र चिन्तन कर रहा है, अर्थात उसके बारे में सोच रहा है, तो भी उग्र परिणाम के अभिप्राय से उसका ये चिन्तन कर्मबन्ध की तीव्र स्थिति वाला हेतु बन गया,08 इसी कारण नरकगति का बन्ध कर डालता है। 09 डॉ सागरमल जैन10 के शब्दों में- "निरन्तर हिंसक-प्रवृत्ति में तन्मयता, असत्य-भाषण करने सम्बन्धी चित्त की एकाग्रता, निरन्तर चोरी करने-कराने की प्रवृत्ति में एकलयता और परिग्रह के अर्जन और संरक्षण-सम्बन्धी चित्त का स्थिरीकरण- ये सभी रौद्रध्यानी के चिन्तन के विषय माने गए हैं। कुछ आचार्यों ने विषय-सरंक्षण का अर्थ बलात् यानी ऐन्द्रिक-भोगों का संकल्प किया है, जबकि कुछ आचार्यों ने ऐन्द्रिक-विषयों के संरक्षण में उपस्थित क्रूरता के भाव को ही विषय-संरक्षण कहा है।" ___ इन सभी भिन्नताओं से परे होकर हमें संक्षेप में इतना ही समझना चाहिए कि रौद्रध्यानी सदैव ही प्रतिपक्ष के अहित का ही सोचता है, इसलिए रौद्रध्यान में अशुभ लेश्याएं ही होती हैं। एक दृष्टि से रौद्रध्यान में व्यक्ति अपने अल्पतम हित के लिए भी दूसरे का अधिकतम अहित करने से भी चूकता नहीं है। आर्त्तध्यानी सुरक्षात्मक-वृत्ति से युक्त होता है, जबकि रौद्रध्यानी आक्रमणवृत्ति से युक्त होता है। आर्तध्यानी में चाह है, जबकि रौद्रध्यानी में आक्रोश है, उसका विचार दूसरों के अहित-चिन्तन में ही लगा रहता है। वह अपने क्षुद्र-स्वार्थ के पीछे भी दूसरे का अधिकतम अहित करने को तत्पर हो जाता है। आर्तध्यान अधिकतर विचार के स्तर 708 ध्यानशतक, सं. महाबोधिविजय से उद्धृत, पृ. 47. 109 रोद्दज्झाण संसारवद्धणं नरयगइमलं ........... || - ध्यानशतक, गाथा- 24. 710 जैनसाधना-पद्धति में ध्यान – डॉ सागरमल जैन, पुस्तक से उद्धृत, पृ. 28. 711 कोवाय-नील-काला लेस्साओ तिव्वसंकिलिट्ठाओ। रोद्दज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामजणियाओ।। - ध्यानशतक- 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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