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________________ 224 गीता में कहा गया है कि क्रोधाधीन व्यक्ति स्वयं के तथा दूसरों के देह में अवस्थित परमात्मा से द्वेष करने वाला होता है। 02 बहुत बार तामसिक-भोजन अथवा शरीर की कमजोरी या बाह्य-परिस्थिति की अनुकूलता न होने पर भी क्रोधोत्पत्ति हो जाती है।703 जब व्यक्ति का अन्तःकरण कषायजनित हो जाता है, तब वह चिड़चिड़ा हो जाता है, बिना वजह किसी पर भी बरस पड़ता है, कर्त्तव्य-अकर्तव्य का भान खो देता है, उग्रता के कारण अनर्थ कर डालता है, यह उग्रता स्वास्थ्य के लिए भी लाभप्रद नहीं होती है, क्रोध से यकृत, तिल्ली और गुर्दे भी विकृत होते हैं,04 पाचनशक्ति भी खराब हो जाती है। . अमेरिका की लाइफ मेगजीन के अन्तर्गत आवेश के कारण व्यक्ति किन-किन रोगों का शिकार बनता है, उसका सचित्र लेख अंकित था। हृदयरोग, रक्तचाप, अल्सर आदि बीमारियों का मूल कारण आवेशात्मक-वृत्ति ही है।'05 आत्महत्याएं, हत्याएं, धारदार अस्त्रों से किसी का अंग छेदन करना, सतत दूसरों को कष्ट देने के उपाय सोचते रहना, राग-द्वेष-मोह से आकुल-व्याकुल रहना, पापाचरण में आनन्द की अनुभूति करना, मरणान्त कष्ट के लिए सदैव तत्पर रहना, स्वयं की भूलों का अहसास न करके सदैव दूसरों की भूलों को देखना, स्वयं के बड़े-से-बड़े दोषों को नजरअन्दाज करना तथा दूसरों के अल्पतम दोषों पर बड़ी सजा देना- ये सभी रौद्रध्यान के आलम्बन के विषय हैं। हिंसा, असत्य, चोरी और विषय-भोगों की रक्षा के निमित्त होने वाली हिंसक-मनोवृत्ति की एकाग्रता रौद्रध्यान के चिन्तन के विषय कहलाते हैं706 __ आक्रोशवृत्ति कम होने पर व्यक्ति सही सोच के अनुसार बर्ताव करने लगता है और उसके अभाव में पतन के गर्त में जा गिरता है।07 702 गीता- 16/4. 703 स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 1, सूत्र- 80. 704 शारीरिक मनोविज्ञान, ओझा एवं भार्गव, पृ. 214. सामान्य मनोविज्ञान की रूपरेखा, पृ. 420-421. 706 हिंसा-अनृत-स्तेय-विषयसंरक्षार्थं रौद्रम् ............. || - जैनसिद्धान्तदीपिका- 6/48. 707 कंपति रोषादग्निः संधुक्षितवच्च दीप्यतेऽनेन। तं प्रत्याक्रोशत्याहन्ति च हन्येत येन स मतः।।। - उत्तराध्ययनसूत्र, मधुकरमुनि पुस्तक से उद्धृत, अध्याय- 2, पृ. 45. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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