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क्रोधावस्था में स्वयं की गलती होने के बावजूद भी अन्य की भूल को ही प्रधानता दी जाती है। क्रोधी व्यक्ति के निन्दनीय कार्य में जो-जो भी तत्त्व अर्थात् वस्तु या व्यक्ति बाधक रूप लगते हैं, वे उसके लिए सर्वाधिक अप्रिय बन जाते हैं और निन्दनीय
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कार्य में साथ देने वाले पदार्थ या व्यक्ति उसके प्रिय पात्र बन जाते हैं।
सामान्यतया, व्यक्ति क्रोध तब करता है, जब उसे यह अनुभूति होती है कि अमुक व्यक्ति उसकी इच्छानुरूप कार्य नहीं कर रहा है, उसकी अनुपस्थिति में या उपस्थिति में कोई उसकी निन्दा कर रहा है, किसी के हंसी-मजाक को देखकर वह नकारात्मक सोच के कारण अपना ही उपहास समझ बैठता है, या उसे लगता है कि उसकी कोई उपेक्षा कर रहा है- इन सब परिस्थितियों के कारण उसके मन में शत्रुता के भाव पनप जाते हैं, क्रोध भड़क जाता है और उसके उग्र स्वभाव के कारण परिवारजन एवं सगे-सम्बन्धियों के मधुर सम्बन्धों के बीच कड़वाहट या बैर तथा प्रतिशोध की ज्वाला भड़कने लगती है ।
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दशवैकालिकसूत्र में लिखा है कि क्रोध प्रीति का विनाशक होता है 1993
क्रोध उत्तेजक आवेग है । उत्तेजित होते ही आक्रमण - वृत्ति प्रवेश करने लगती है। और यह वृत्ति इतनी आवेगात्मक रहती है कि अपने छोटे-से स्वार्थ के लिए वह दूसरे की हिंसा तक कर बैठता है ।
मनावैज्ञानिकों के अनुसार- क्रोध और भय में यही मुख्य अन्तर है कि क्रोध के आवेग में आक्रमण का और भय के आवेग में आत्मरक्षा का प्रयत्न होता है। 694
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सामान्यतौर पर जैनदर्शन में क्रोध के दो प्रकार माने गए हैं
1. द्रव्य - क्रोध ।
2. भाव - क्रोध ।
द्रव्य-क्रोध व्यक्ति की मानसिक स्थिति न होकर मात्र शारीरिक परिवर्तन के स्तर तक सीमित है, जबकि भाव- क्रोध मानसिक-स्तर पर आधारित है। क्रोध का अनुभूत्यात्मक - पक्ष भाव- क्रोध है, जबकि अभिव्यक्त्यात्मक - पक्ष द्रव्य-क्रोध कहलाता
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693 कोहो पीइं पणासेइ । ।
दशवैकालिकसूत्र, अध्याय - 8, गाथा- 38.
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प्रस्तुत सन्दर्भ कषाय ।। साध्वी हेमप्रज्ञाश्री ।। पुस्तक से उद्धृत, पृ. 13.
भगवतीसूत्र- 12/5/2
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