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________________ भगवान् महावीर ने कहा है कि अनेक भवों में अनन्त बार यह जीव शारीरिक तथा मानसिक रूप से भयंकर वेदनाओं को सहन करता रहता है, दुःखों और भय से पीड़ित होता है ,690 जैनसिद्धान्तदीपिका में बताया गया है कि इष्ट शब्दादि इन्द्रियों के विषयों का वियोग अनिष्ट शब्दादि इन्द्रियों के विषयों का संयोग होने पर रोना, आक्रन्दन करना, वेदना के पैदा होने पर आकुल-व्याकुल होना, वैषयिक - सुख प्राप्त हो- ऐसा दृढ़ संकल्प करके बारम्बार उसी चिन्तन में रत रहना - ये आर्त्तध्यान के विषय के चिन्तन हैं। 9 691 अच्छा जीवन जीने के लिए अपेक्षाएं जरूरी हैं, परन्तु आत्मशान्ति हेतु, अपेक्षा न हो- यह भी जरूरी है। अच्छा जीवन, शान्त जीवन, स्वस्थ जीवन, पवित्र जीवन, आनन्दमय जीवन जीना हो, तो इच्छा, आकांक्षा, तृष्णा, लोभवृत्ति का बहिष्कार अनिवार्य 692 रौद्रध्यान के चिन्तन के विषय रौद्रध्यान वस्तुतः दूसरों का अहित करने से सम्बन्धित विचार है। आर्त्तध्यान में अनुकूल - विषयों की उपलब्धि की तथा प्रतिकूल विषयों की अनुपलब्धि की चिन्ता होती है, जबकि रौद्रध्यान में मूलतः दूसरों के अहित की वृत्ति ही काम करती है, इसलिए यह माना गया है कि आर्त्तध्यान सातवें गुणस्थान तक हो सकता है, जबकि रौद्रध्यान दूसरों के अहित का विचार है, वह ईर्ष्याजन्य आक्रमक - -वृत्ति है और इसलिए एक दृष्टि से सामान्यतया रौद्रध्यान मिथ्यात्वादि गुणस्थान में ही सम्भव है। आर्त्तध्यान में आकांक्षा, अपेक्षा, इच्छा, तृष्णादि के कारण संसार - परिभ्रमण होता है, जबकि रौद्रध्यान में घनीभूत कर्मबन्ध के कारण संसार - परिभ्रमण होता है । मूल रौद्रध्यानी में क्रोध, आवेग, हिंसक - वृत्ति की प्रवृत्ति ज्यादा रहती है। क्रोध के में प्रतिकार का भाव होता है । क्रोधाभिभूत व्यक्ति में विवके -दृष्टि का अभाव होता है, वह भले-बुरे की परख नहीं कर पाता है । 690 सारीर'- माणसा चेव वेयणाओ अणन्तसो उत्तराध्ययनसूत्र - 19/46. 691 प्रियाणां शब्दादिविषयाणां वियोगे तत्संयोगाय - • जैनसिद्धान्तदीपिका, सूत्र - 47-48. झाणं 63 दुध्यानों, पतित मन में पावन करो, सन्मार्ग प्रकाशन से उद्धृत, पृ. 126. 692 221 Jain Education International || 11 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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