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________________ आलम्बन-द्वार - ध्यानशतक के कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण शुक्लध्यान के आलम्बन का निरूपण करते हुए कहते हैं कि जिनमत में क्षमा, मार्दव, आर्जव तथा मुक्ति आदि गुणों की प्रमुखता रही है। ये आलम्बन कहे गए हैं, जिनका आधार लेकर श्रमण शुक्लध्यान में आरूढ़ होता है।666 शुक्लध्यान के आलम्बनद्वार के मुख्य प्रतिपाद्य विषय क्षमा, मृदुता, ऋजुता और निर्लोभता आदि दस धर्म हैं।667 यद्यपि ये दस धर्म धर्मध्यान के भी आलम्बन माने जा सकते हैं, किन्तु उन्हें शुक्लध्यान का आलम्बन इसलिए माना जाता है कि धर्मध्यान के आधार पर ही शुक्लध्यान का विकास होता है। दूसरा यह कि ये दस धर्म कषायों को उपशान्त करने के लिए एवं आत्मा की पवित्रता के लिए भी आधारभूत हैं। __ शुक्लध्यान का संबंध आत्मा की पवित्रता से है, इसलिए इन्हें शुक्लध्यान के आलम्बन के रूप में कहा है, फिर भी हमें यह समझ लेना चाहिए कि शुक्लध्यान का मुख्य लक्ष्य तो मन को अमन की स्थिति में ले जाना है और मन को अमन (निर्विकल्प) बनाने के लिए सर्वप्रथम उसे अशुभ से शुभ में नियोजित करना होगा, तत्पश्चात् वह शुद्ध में जाएगा, इसलिए आलम्बन अर्थात् आधार के रूप में इन दस धर्मों को शुक्लध्यान के आलम्बन के रूप में बताया गया है। जीवात्मा ने सभी दुष्प्रवृत्तियों का त्याग कर मात्र आत्मस्वरूप का आलम्बन लिया है। उसका ध्यान ही सर्वोपरि ध्यान है।688 शुक्लध्यान के आलम्बनों के स्वरूप की आगे विस्तार से चर्चा की जा रही है। क्रम-द्वार - योग-साधना क्रमानुसार करना चाहिए, जिसका क्रम इस प्रकार 1. चित्त की निर्मलता 866 अह खंति-मद्दव-ऽज्जव-मुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ। आलंबणाई जेहिं सुक्कज्झाणं समारूहइ।। - ध्यानशतक- 69. 667 (क) उत्तमः क्षमा-मार्दवाऽऽर्जव .................. || - तत्त्वार्थसूत्र- 9/7. ) सेव्यः क्षान्तिमार्दवमार्जवशौचे च संयमत्यागौ। सत्यतपोब्रह्माकिञ्चन्यानीत्येष धर्मविधिः ।। - प्रशमरतिप्रकरण, गाथा- 171. 668 अप्पसरूवालबणभावेण दु सव्वभावपरिहारं ............ || - नियमसार- 119. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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