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________________ 191 तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में कहा है कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त अनेक द्रव्यों एवं उनकी पर्यायों का आलम्बन लेकर चिन्तन करना पृथक्त्व-वितर्क-विचार नामक शुक्लध्यान का पहला स्तर है।505 हरिवंशपुराण में कहा है- जिस पदार्थ का ध्यान किया जाता है, वह अर्थ कहलाता है और उसका प्रतिपादक होता है- शब्द या व्यंजन। मन, वचन आदि की प्रवृत्तियों को योग कहते हैं। इस प्रकार, वितर्क का अर्थ युक्तिपूर्वक चिन्तन करना है। पृथक्त्व-वितर्क-सविचार शुक्लध्यान में विचार और विचार के विषय बदलते रहते हैं।506 आदिपुराण ग्रन्थ के श्लोक क्रमांक एक सौ उनहत्तर से एक सौ तिरासी तक शुक्लध्यान के प्रथम भेद का विस्तार से वर्णन किया गया है। प्रथम भेद का उल्लेख करते हुए कहा है कि जिसमें अर्थ, व्यंजन और योगों (मानसिक-प्रवृत्तियों) का पृथक्-पृथक् संक्रमण होता रहे, अर्थात् अर्थ को छोड़कर व्यंजन का और व्यंजन को छोड़कर अर्थ का चिन्तन होने लगे, अथवा मन, वचन और काय- इन तीनों योगों का परिवर्तन होता रहे, उसे पृथक्त्व-वितर्क-विचार कहते हैं।507 अध्यात्मसार के अनुसार, द्रव्य से द्रव्यान्तर, गुण से गुणान्तर, पर्याय से पर्यायान्तर में चित्त का संक्रमण होना पृथक्त्व-वितर्क-विचार नामक प्रथम शुक्लध्यान है।508 इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम, ज्ञानार्णव ध्यानदीपिका", ध्यानकल्पतरू512, ध्यानविचार, सिद्धान्तसारसंग्रह, ध्यानस्त15. ध्यानसार516 505 पृथक्त्वम्-अनेकत्वम् तेन सह गतो वितर्कः, पृथक्त्वमेव वा वितर्कः सहगतं वितर्कपुरोगं पृथ -क्त्ववितर्कम् तच्च परमाणुजीवादावेकद्रव्ये उत्पादव्ययध्रौव्यादिपर्यायानेकतयाऽपि तत्वं तत् पृथक्त्वं पृथक्त्वेन पृथक्वे वा तस्य चिन्तनं वितर्क सहचरितं सविचारं च यत् तत् पथक्त्ववितर्कसविचारं ........... निरोधो ध्यानमिति।। - तत्त्वार्थसिद्धवत्तौ-9/43-45-46. 506 पृथग्भावः पृथक्त्वं हि नानात्वमभिधीयते। वितर्को द्वादशांगं तु श्रुतज्ञानमनाविलं।। . अर्थव्यंजनयोगानाम् विचारःसंक्रमः क्रमात् । ध्येयोऽर्थों व्यंजनं शब्दो योगो वागादिलक्षणः ।। पृथक्त्वेनवितर्कस्य विचारोऽर्थादिषु क्रमात् । यस्मिन्नास्ति तथोक्तं तत्प्रथमं शुक्लमिष्यते।। - हरिवंशपुराप -56/57-59. 507 इत्याद्यस्य भिदेस्यातामन्वर्था ...... ध्यानमामनन्तिमनीषिणः ।। - आदिपुराण- 21/169-183. 508 सवितर्क सविचारं सपृथक्त्वं ....... क्षोभाऽभावदशानिभम्।। - अध्यात्मसार- 16/74-76. 50 षट्खण्डागम, भाग-5, धवलाटीका, गाथा- 58-60, पृ. 78. ज्ञानार्णव- 42/9, 13, 15. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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