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________________ 190 1. पृथक्त्व-वितर्क-सविचार - जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण शुक्लध्यान के प्रथम प्रकार (स्तर) का निरूपण करते हुए लिखते हैं कि एक वस्तु में उत्पाद, स्थिति और भंगादि अवस्थाओं का द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक आदि अनेक नयों के आश्रय से जो पूर्वगत श्रुत के अनुसार चिन्तन होता है, वह ही प्रथम शुक्लध्यान माना गया है। वह अर्थान्तर, व्यंजनान्तर और योगान्तर की अपेक्षा से सविचार है। पृथक्त्व-वितर्क-सविचार नाम का यह प्रथम शुक्लध्यान रागरहित वीतराग छद्मस्थ को होता है। यहां पृथक्त्व का अर्थ हैअलग-अलग करके या विश्लेषणपूर्वक और वितर्क-विचार का अर्थ है- युक्तिपूर्वक चिन्तन करना। स्थानांगसूत्र के अनुसार, जब कोई वज्रऋषभनाराच संहननवर्ती सातवें गुणस्थान में स्थित अप्रमत्त-संयत साधक मोहनीय-कर्म के क्षपण में आगे प्रयत्नशील होता है, तब वह अग्रिम कक्षा अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में प्रवेश करता है। प्रतिसमय अनन्त गुना विशुद्धि के द्वारा शुद्धोपयोगस्वरूप वीतराग परिणतिरूप शुक्लध्यान के प्रथम चरण का प्रारम्भ हो जाता है- यह पृथक्त्व-वितर्क-विचार शुक्लध्यान है। वितर्क, अर्थात् भावश्रुत के आधार से द्रव्य, गुण और पर्याय का विचार करना। विचार का अर्थ है- व्यंजनों और योगों का परिवर्तन। जब ध्यान में स्थित साधु एक पदार्थ या पर्याय का चिन्तन कर दूसरे पदार्थ या उसकी पर्याय का चिन्तन करने लगता है, तब उस पृथक्-पृथक् मनन को पृथक्त्व-वितर्क-विचार कहते हैं।503 . . तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि शुक्लध्यान की प्रथम अवस्था में पृथक-पृथक रूप से श्रुत पर विचार होता है, अर्थात् श्रुत को आधार मानकर एक द्रव्य से उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य आदि पर्यायों का चिन्तन करना पृथक्त्व-वितर्क-सविचार ध्यान कहलाता है।504 - ध्यानशतक- 77-78. 503 स्थानांगसूत्र- 4/1/68. 504 तत्त्वार्थसूत्र-9/41. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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