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________________ ___180 औपपातिकसूत्र4 और भगवतीसूत्र15 में भी इसी बात का समर्थन किया गया है। अध्यात्मसार में कहा गया है- 'यह चतुर्गतिक संसार दुःख से भरा हुआ है। सम्पूर्ण संसार के सभी प्राणी दुःखी हैं। जहां स्पृहा है, चाह है, वहीं दुःख है। देवों के सुख की भी अन्तिम परिणति दुःख ही है। इस प्रकार, मनुष्य, पशु, नरकादि के दुःखों का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है। 446 आचारांगवृत्ति. सूयगडांगसूत्र. उत्तराध्ययनसूत्र49. आवश्यकचूर्णि450. तत्त्वार्थसूत्र, तत्त्वार्थाभिगमभाष्य'52. सर्वार्थसिद्धि 53, प्रशमरतिप्रकरण 54, योगशास्त्र. शान्तसुधारस456. ज्ञानार्णव'57. स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा 58, ध्यानदीपिका 59, ध्यानविचारसविवेचन आदि ग्रन्थों के अनुसार चतुर्विध गति के परिभ्रमण कराने वाले जन्म-मरणरूप चक्र को ही संसार कहते हैं। तिर्यच-गति में भूख, प्यास, ताड़ना, तर्जना आदि कष्टों को एवं नरकगति में क्षेत्रगत व परमाधामी देवों से प्रगत और परस्परकृत वेदनाओं को सहन करना पड़ता है।461 मनुष्यगति में जन्म, 443 धम्मस्सणं झाणस्स ..... संसाराणुप्पहो।। - स्थानांगसूत्र- 4/1/68, मधुकरमुनि, पृ. 224. 444 औपपातिकसूत्र-20. 445 भगवतीसूत्र- 803. 446 अनित्यत्वाद्यनुप्रेक्षा, ध्यानस्योपरमेऽपि हि। भावयेन्नित्यमभ्रान्तः, प्राणा ध्यानस्य ताः खलु ।। - अध्यात्मसार- 16/70. आचारांगवृत्ति (शीलांकाचार्य) - 2/1/185-86. सूयगडांगसूत्र (शीलांकाचार्य, जवाहरमलजी म.)- 5/1/68-69. उत्तराध्ययनसूत्र- 19/15, 31- 72. इमाओ पुण से चत्तारि ...... संसाराणुप्पेहं ।। - आवश्यकचूर्णि. तत्त्वार्थसूत्र- 3/3-4. 452 तत्त्वार्थाधिगमभाष्य- 3/3-4.. 453 सर्वार्थसिद्धि- 3/5. 454 माता भूत्वा दुहिता ........... शत्रु तां चैव।। - प्रशमरतिप्रकरण- 156. श्रोत्रियः श्वपचः स्वामिपतिर्ब्रह्मा ........ || - योगशास्त्र-4/65. 456 इतो लोभः क्षोभं जनयति ..... || – शान्तसुधारस- 7, पृ. 174. 457 चतुर्गतिमहावर्तेदुःखवाऽवदीपिते ....... || - ज्ञानार्णव- 2/67. 458 एक्कं चयदि शरीरं अण्णं ....... ।। – स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा- 32, 66,68,69. 459 संसारदुःखजलधो .......... संसारस्येतिभावनाः।। – ध्यानदीपिका- 3/20-21. 460 ध्यानविचारसविवेचन, पृ. 34. 461 परस्परोदीरितःदुःखा। - तत्त्वार्थसूत्र- 3/4. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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