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सूत्रकृतांगसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र. प्रशमरतिप्रकरण 36. शान्तसुधारस37, ज्ञानार्णव 38, स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा39 एवं योगशास्त्र'""- इन ग्रन्थों में उल्लेख है कि जन्म, जरा, मरण, आधि, व्याधि, उपाधि से पीड़ित प्राणियों का इस संसार में कोई शरणभूत नहीं है। धन, परिवार, माता, पिता, पुत्र, पुत्री, पत्नी आदि कोई मृत्यु से बचा नहीं सकते। आत्मा का यदि कोई रक्षक, तारक, पालक शरणरूप है, तो मात्र धर्म है। धर्म की शरण ही यथार्थ शरण है, बाकी सब मिथ्या हैं- इस प्रकार आत्मा की अशरणभूतता का चिन्तन करना ही अशरणानुप्रेक्षा है।
सत्य यह है कि संसार में प्राणी के लिए कोई भी शरणभूत नहीं है। वह नितान्त अशरण, असहाय और असुरक्षित है। अशरणानुप्रेक्षा साधक को धर्मध्यान में अभिरत करती है।
संसारानुप्रेक्षा - ध्यानशतक में संसारानुप्रेक्षा के सन्दर्भ में कहा गया है कि संसार असार है, संसार में क्षण भर के लिए भी, लेशमात्र भी सुख नहीं है।41 संसार दुःखरूप है, दुःख परिणाम वाला है और दुःख की परम्परा को बढ़ाने वाला है।142
___ यह संसार मनुष्य, नारक, देव, तिर्यंच-रूप चार गतियों से युक्त है। कर्मों की गति विचित्र है और कर्मों के अनुसार वे उत्पन्न होते हैं तथा परिभ्रमण करके मृत्यु को प्राप्त होते हैं। यह चक्र अनादिकाल से चला आ रहा है। यह भवचक्र बड़ा विषम एवं दुर्गम है। संसारानुप्रेक्षा संसार के स्वरूप का बोध कराती हुई आत्म स्वरूपोन्तमुख बनने की प्रेरणा प्रदान करती है।
स्थानांगसूत्र के अनुसार, चतुर्गतिरूप संसार की दशा का चिन्तन करना ही संसारानुप्रेक्षा है।443
434 सूत्रकृतांगसूत्र- 2/1/13. 435 उत्तराध्ययन- 13/22. 436 जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते।
जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं क्वचिल्लोके।। - प्रशमरतिप्रकरण- 152. 437 ये षट्खण्डमहीमहीनतरसा .............. || – शान्तसुधारस, पृ. 133. 438 न स कोऽप्यस्ति दुर्बुधे शरीरी भुवनत्रये ......... || - ज्ञानार्णव- 2/48. 439 तत्थ भवे किं सरणं जत्थ ........ || – स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा-24, 25, 27, 29, 30. 440 यत्प्रातस्तन्न मध्याह्न ......... ।। – योगशास्त्र- 4/57.
ध्यानशतक, गाथा- 65. 42 दुक्खरूवे दुक्खफले दुक्खाणुबन्धे। – पंचसूत्र- 1/2.
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