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________________ 176 निमित्त से दुष्कर्म करता है, लेकिन मात्र अकेला ही नरकादि दुर्गति में जाकर फल भोगता है। शान्तसुधारस के प्रणेता उपाध्याय विनयविजयजी ने एकत्वानुप्रेक्षा की महत्ता का अंकन करते हुए कितना सुन्दर लिखा है एक उत्पद्यते तनुमान् एक एव विपद्यते। एक एव हि कर्म चिनुते एकैकः फल-मश्नुते ।।14 __ अर्थात्, प्राणी अकेला ही उत्पन्न होता है, वह अकेला ही मरण को प्राप्त होता है, वह अकेला ही कर्मों का संचय करता है और अकेला ही उनका फल भोगता है। अध्यात्मसार के अनुसार ‘एगो मे सासओ अप्पा णाणदंसण-संजुओ' अर्थात्, ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न मेरी आत्मा शाश्वत है, अन्य सभी संयोग अस्थायी हैं- इस भावना से आत्म-प्रतीति दृढ़ होती है।115 ज्ञानार्णव. योगशास्त्र, स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा. शान्तसुधारस19इन ग्रन्थों में एकत्वानुप्रेक्षा के सन्दर्भ में लिखा है कि प्राणी अपने पूर्वकृत कर्मानुसार अगले भव को प्राप्त करता है। यह जीव अकेला ही जन्मता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही गर्भ में आता है, अकेला ही बाल-यौवन-वृद्धावस्था को प्राप्त होता है, रोगादि से ग्रस्त होता है, शोकमग्न होता है और विविध दुःखों को भोगता हुआ चार गतियों में भटकता रहता है। वास्तव में आत्मा को उत्तम क्षमादि दस धर्म ही चार गतियों के दुःख से बचा सकते हैं। इस प्रकार का चिन्तन एकत्वानुप्रेक्षा है। नमि राजर्षि ने एकत्वभावना का चिन्तन किया था।420 413 शुभाशुभानां जीवोऽयं कृताना ........... स्वजनास्तदन्ते।। - ध्यानदीपिका- 22-23. 414 शान्तसुधारसभावना, एकत्वभावना, गीतिका- 01, पद्य- 2, पृ. 21. 415 अध्यात्मसार- 16/70. 416 महाव्यसनसंकीर्णेदुःख ......... दुर्गे भवमरूस्थलें ।। - ज्ञानार्णव- 2/84. एक उत्पद्यते जन्तुरेक - योगशास्त्र-4/68. 418 स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा- 38, 74-79. 419 एक एव भगवानयमात्मा ........ व्याकुलीकरणमेवममत्वम्।। – शान्तसुधारस, एकत्व, पृ. 222. 420 उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय- 01. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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