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धर्मध्यान में आरोहण करने के लिए आलम्बनरूप ही हैं। ध्यान एवं विशेष धर्मध्यान के लिए दृढ़ता (बलवान्) आवश्यक होती है और आलम्बन के आधार से ही ध्यान में क्रमशः प्रगति होती है। चूंकि ध्यान में प्रगति के लिए मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों का समाहार या चित्तवृत्ति की समाधि आवश्यक है, अतः साधक को ध्यान के क्षेत्र में आलम्बन लेकर ही प्रयत्न करना चाहिए, इससे चित्त की भटकन कम होती है।
__ केवली का ध्यान तो निरालम्बन और योगनिग्रहरूप होता है, किन्तु सामान्य व्यक्ति के ध्यान के लिए तो आलम्बन अपेक्षित होते हैं।
यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि आचार्य हरिभद्र ने ध्यानशतक की अपनी टीका में धर्मध्यान के लिए आलम्बन की महत्ता को स्थापित किया है, क्योंकि जब तक राग-देष आदि कषायों का शमन नहीं होता, तब तक ध्यान के क्षेत्र में प्रगति सम्भव नहीं है। आलम्बनों के स्वरूप की चर्चा आगे विस्तार से की जाएगी।
6. क्रम-द्वार - ध्यानशतक में क्रमद्वार का निरूपण करते हुए लिखा है कि मोक्षप्राप्ति से पहले अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त केवली के शुक्लध्यान में मनोयोग आदि का निरोध होता है। वह क्रम है- सूक्ष्म मनोयोग, फिर सूक्ष्म वचनयोग और अन्त में सूक्ष्म काययोग का निरोध, बाकी धर्मध्यान की अवस्थाओं में साधक जिस प्रकार भी समाधि को प्राप्त हो, उसी क्रम से निग्रह करता है।395
ध्यान का मुख्य लक्ष्य तो मन का अमन हो जाना है, विकल्पों का शान्त हो जाना है, किन्तु यह सब सहज ही सम्भव नहीं होता है। उसके लिए प्रयत्न अथवा साधना आवश्यक है। धर्मध्यान और शुक्लध्यान के जो विभिन्न चरण आगमों में या प्रस्तुत कृति में उल्लेखित हैं, वे सब इसी बात को स्पष्ट करते हैं कि ध्यान के क्षेत्र में चित्तवृत्ति के निरोध के प्रयत्नों से लेकर निर्विकल्प-अवस्था तक पहुंचने में न केवल समय और साधना अपेक्षित है, अपितु उसमें क्रम भी आवश्यक है।
__ धर्मध्यान और शुक्लध्यान के चार-चार भेद उसी क्रम को सूचित करते हैं। सर्वप्रथम ज्ञेय विषय का आलम्बन होता है और फिर क्रमशः उस ज्ञेय विषय को सूक्ष्म
395 झाणप्पडिवत्तिकमो होइ मणोजोगनिग्गहाईओ।
भवकाले केवलिणो सेसस्स जहासमाहीए।। - ध्यानशतक, गाथा-- 44.
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