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________________ 149 अध्यात्मसार ग्रन्थ के अनुसार, प्रकृति आदि चार भेदों के कर्मों के विपाक का शुभ और अशुभ के विभाग से ध्यान अर्थात् कर्म के परिणाम के विषय में चिन्तन करना विपाकविचयरूप-धर्मध्यान का तीसरा भेद है।266 । प्रशमरतिप्रकरण67 योगशास्त्र, ध्यानस्तव269ध्यानकल्पतरू70 आगमसार1, ध्यानविचार, सिद्धान्तसारसंग्रह।, श्रावकाचारसंग्रह74 आदि अनेक ग्रन्थों में यही लिखा है कि शुभाशुभ कर्मों के उदय, फल की प्राप्ति कैसे हुई ? क्यों हुई ? शास्त्रानुसार उसका विचार करना विपाकविचय है। प्रतिक्षण ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों के निमित्त से शुभ अथवा अशुभ कर्मफलों का उदय होता है, अतः कर्मों के विपाकों पर ध्यान केन्द्रित करने या मन के अध्यवसायों की स्थिति ही विपाकविचय –धर्मध्यान कहलाती है। विपाकविचय कार्य से कारण का साक्षात्कार करने की उत्तम प्रक्रिया है।275 प्रस्तुत ध्यान द्वारा साधक के अन्तःकरण में कर्मों से भिन्न होने तथा आत्मभाव से अभिन्न होने की रुचि पैदा होती है। अपाचविचय और विपाकविचय- दोनों प्रकार के धर्मध्यान एक ही मार्ग के पथिक हैं, अन्तर सिर्फ इतना है कि विपाकविचय-धर्मध्यान का क्षेत्र व्यापक है। साधक आत्मा की कर्मविमुक्ति के विचार से ही अपनी आध्यात्मिक विकास यात्रा आगे बढ़ती है। इस हेतु कर्मों के विपाक को समझकर ही कर्मविमुक्ति का प्रयास करना चाहिए। 4. संस्थानविचय - ध्यानशतक के ग्रन्थकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण धर्मध्यान के चौथे प्रकार संस्थानविचय का निरूपण गाथा क्रमांक बावन से सत्तावन तक करते हुए लिखते हैं कि जिनेश्वर देव द्वारा प्रतिपादित धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य के लक्षण, 266 ध्यायेत्कर्मविपाकं च ........... शुभाऽशुभविभागतः ।। – अध्यात्मसार- 16/38. 267 अशुभाशुभकर्मपाकानुचिन्तनार्थो विपाकविचयः स्यात्। - प्रशमरति प्रकरण, श्लोक- 249. 268 प्रतिक्षण समुद्भूतो ........... कर्मणः । – योगशास्त्र, प्रकरण- 10, श्लोक- 12-13. 269 ध्यानस्तव, श्लोक- 12. 27° ध्यानकल्पतरू, तृतीय शाखा, तृतीय पत्र, पृ. 173. आगमसार, पृ. 172-173. ध्यानविचार सविवेचन, पृ. 26. 273 सिद्धान्तसारसंग्रह- 11/569. 274 श्रावकाचारसंग्रह, भाग-5, पृ. 353. 275 कार्यादिलिङ्गद्वारेणैवार्वाग्दृशामतीन्द्रियपदार्थावगमो भवति। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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