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है। इन सबकी विशेष जानकारी षट्खण्डागम, कषायप्राभृत, कर्मप्रकृति, कर्मग्रन्थ आदि में विस्तार से दी गई है।260 इन कर्मों के विपाक या फल का चिन्तन करना विपाकविचय है।
स्थानांगसूत्र में धर्मध्यान के तृतीय प्रकार का वर्णन करते हुए कहा गया है कि कर्मों के फल का विचार करना विपाकविचय है। जीव तो कर्माधीन है। पूर्व दूषित कर्मों के परिणामस्वरूप यदि दुःख की स्थिति आए, तब भी समतापूर्वक उसे सहन कर उसके कारणों का चिन्तन करना ही विपाकविचय-धर्मध्यान है।261
तत्त्वार्थसूत्र में लिखा है- अनुभव में आने वाले कर्म के विपाकों में से कौन-कौन से कर्म के क्या-क्या विपाक हैं ? इसमें मनोस्थिति की एकाग्रता विपाकविचय-धर्मध्यान
है।262
___ तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति में कहा गया है कि विविध प्रकार के कर्मों के फल को विपाक कहते हैं। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव के भवों में कर्मों का जो फल होता है, उस फल का चिन्तन-मनन, अर्थात् विचार-विमर्श करना, उसी चिन्तन में अपने मन को एकाग्र करना विपाकविचय वाला धर्मध्यान कहलाता है ।263
. ज्ञानार्णव में भी यही कहा गया है कि संसारी-जीवों के प्रति समय जो अनेक प्रकार के कर्मों के फल का प्रकटन होता है, उसे ही विपाक जानना चाहिए। अभिप्राय यह है कि अज्ञानवश जीवों के द्वारा बान्धे गए कर्मों का समूह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रित होकर नियम से सुख-दुःखादि के उत्पादनरूप अनेक प्रकार के फल को देता है- यही विपाक है।264 इसका चिन्तन करना विपाकविचय –धर्मध्यान है।
ध्यानदीपिका में लिखा है कि शुभ अथवा अशुभ, चार प्रकारों के कर्मबन्ध द्वारा जीव कर्मों के विपाक को भोग रहे हैं, उसका विचार करना विपाकविचय है और ऐसा विचार करने वाला व्यक्ति विपाकविचय-धर्मध्यानी कहलाता है।265
ध्यानशतक, पं. बालचंद्र शास्त्री, पृ. 28-29. 261 स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 1, सूत्र- 65. 262 तत्त्वार्थसूत्र- 9/37. 263 तृतीयं धर्मध्यानं विपाकविचयाख्यमुच्यते-विविधो विशिष्टो वा पाको विपाकः अनुभावः ।।
- तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति, सन्मार्ग प्रकाशन ध्यानशतक से उद्धृत, पृ. 79. 264 स विपाक इति ज्ञेयो ............... स्वसिद्ध्यर्थिनः । - ज्ञानार्णव, प्रकरण- 30, श्लोक- 1-30
(विपाकविचय के अन्तर्गत.) 265 चतुर्धा कर्मबन्धेन .... पुण्यापुण्यस्य कर्मणः ।। – ध्यानदीपिका, प्रकरण- 7, श्लोक- 125-127.
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