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अंकन - मारण -
गरमागरम लोहे की शलाका आदि से शरीर पर चिह्न अंकित करना। पीटना तथा प्राणविहीन करना।
इन कार्यों में अनुराग रखना, अथवा इन कार्यों के करते समय हृदय में करुणा, दया आदि उत्पन्न न होना- यह सब हिंसानुबन्धी-रौद्रध्यान है।
स्थानांगसूत्र100 की दृष्टि से हिंसानुबन्धी-रौद्रध्यान वह है, जो निरन्तर हिंसक प्रवृत्तियों में तन्मयता रखता है।
ज्ञानार्णव में रौद्रध्यान के प्रथम भेद पर प्रकाश डालते हुए लिखा गया है कि जो जीव निरन्तर क्रूर स्वभाव से संयुक्त, स्वभावतः क्रोध-कषाय से संतप्त, पापबुद्धि, दुराचारी, हिंसा में कुशलता का अनुभव करने वाला, पाप के उपदेश में अतिशय प्रवीण, प्रतिघात में तीव्र अनुराग के भाव रखने वाला हो- ऐसे व्यक्ति को आचार्य शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव के योगप्रदीपाधिकार में रौद्रध्यानी कहा है। यह रौद्रध्यान का हिंसानन्द नामक प्रथम भेद है।101
___ आदिपुराण'02 में कहा गया है कि मारने और बांधने आदि की इच्छा करना, अंग-भंग करना, संताप देना, कठोर दण्ड देना आदि को विद्वान् लोग हिंसानन्द नाम का रौद्रध्यान कहते हैं। हिंसक पुरुष तीव्रकषाय द्वारा दूसरों एवं स्वयं- दोनों का अहित कर बैठता है। स्वयंभूरमण समुद्र में रहा हुआ तन्दुल मत्स्य मात्र भावों द्वारा ही हिंसा करता है। पूर्वकाल में अरविन्द नामक विद्याधर केवल रुधिर में स्नान करने रूप रौद्रध्यान से ही नरक गया था।
अध्यात्मसार103 में उपाध्याय यशोविजयजी ने रौद्रध्यान के भेदों का विवेचन करते हुए कहा है कि हिंसानुबन्धी जीव हिंसा का अनुबन्ध करने वाला होता है, अर्थात् हिंसा के विचार द्वारा भारी कर्मबन्ध करता है। जैसे मैं सभी को गोली से उड़ा दूंगा, या
100 (क) रोद्दे झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा–हिंसाणुबन्धि
- स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 1, सूत्र- 63, पृ. 223. (ख) समवायांगसूत्र, समवाय- 4. 101 ज्ञानार्णव, सर्ग- 26, श्लोक-6-14. 102 वधबन्धाभिसन्धान ....
.....विवेश सः।। – आदिपुराण, पर्व- 21/45-48. 103 निर्दयं वधबन्धादि-चिन्तन निबिडक्रुधा। - अध्यात्मसार- 16/11.
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